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3.
रात...
प्रिंसेस डिनर के साथ कैबरे
में मेक्सिकन
नंगा डांस चल रहा था। हृदय को उन्मत्त करने वाले दृश्य। काउल ने कहा,“दास साहब!पाप की करामत जानते हो? अहंकारी कर्ण का उद्धत
भार सहन नहीं करने के कारण शायद लक्ष्मी प्रतिदिन उन्हें
एक भरी स्वर्ण भेंट कर रही
थी।मगर
मुझे अजस्र बैंक बैलेंस मिला है। शायद मेरे पाप का भार माँ लक्ष्मी सहन
नहीं कर पाई।बीच-बीच में मुझे विदेशी मुद्रा भी प्रदान की।”
“नर्तकियों के जरिए लक्ष्मी का उपहार तो ससम्मान आ
रहा था।आपके लिए कस्टम क्या है?”
“ मेरे लिए नर्तकियां सदा उर्वशी और मेनका नहीं थी।कभी-कभी
अलीबाबा की
सायोनारा भी थी।एक हाथ में सुरा का प्याला और दूसरे हाथ में चाकू।कभी-कभी फूल-माला
के बदले लोहे की हथकड़ी भी पहुंचती थी।मगर उस पाप के
भरोसे जिंदगी के कितने साहारा-मरुस्थल पार किए,उसका कोई हिसाब नहीं।कोई छोटी-मोटी भेंट या वितरण,कई बार मामूली जुर्माना अदाकर रिहा हुआ
हूँ।”
थोड़ी-सांस लेकर फिर से
कहने लगे,“लगता है पुण्य काफी झूलने वाला सुपारफिशियल है।जिस पर
भरोसा नहीं किया जा
सकता।मगर पाप की जड़ सदा भरोसेमंद,सुदृश और गहरी होती है।बच्चे
को देखो, उसकी
कितनी हिंसा,कितना लोभ,एक खिलौने के लिए,एक पोशाक
के लिए होता है।बिना
सोचे समझे जरा-सी चीज के लिए औरों से युद्ध कर बैठता
है।मगर त्याग,सत्य,सेवा के लिए बुद्ध, ईसा,मोहम्मद,गांधी सिर पीट-पीटकर
थक
गए।पोथी पर पोथी खत्म हो गई। मंदिर,मस्जिद,गिरजाघर से ऊंचे स्वर में
आवाज लगाई गई।मगर परिणाम स्वरूप स्वार्थ को छोड़कर सेवा,त्याग,सत्य आदि
का कोई मूल्य नहीं
रह गया। पाप आदिम
है,पाप मौलिक
है।पुण्य
शौकिया
है,पुण्य क्षण-स्थायी
है।
फिर जरा चुप रहकर
काउल ने कहना शुरू किया, “मानव-इतिहास में व्याप्त
इस प्रगल्भ दर्शन को हम और
हमारे जैसे व्यापारी शायद अच्छी तरह से समझ सकते हैं।”
“ काउल! तुम आकाश में घटाघोप बादल,उच्छृंखल बिजली और कर्कश वज्रपात देखते
हो।मगर छोटे-छोटे तारे जो शांति से इनका मुकाबला करते हैं,आखिरकार उनकी विजय होती हैं।चाहे रात्रि का अंतिम
प्रहर हो,मगर विजय
उन्हें मिलती है! दूर से देखने पर खाली नजर
आते हैं,रूपहीन,संज्ञाहीन,असुराकार द्रुमों की तरह। मगर इधर जो सूक्ष्म-फूल किसी लता के सारे
खिलता है,वह औरों को शांति और
कोमल भाव देता है, उसके अस्तित्व का
तुम्हारे पास कोई
मूल्य नहीं है?”
“ दास साहब! मुझे तो लगता है सत्य,शांति,कोमलता,तारा,फूल आदि
को गूँथकर कविता तो बन सकती है,मगर जिंदगी नहीं
चल सकती है।मार्बल फ्लोर,ड्राई
चेरी,चाइनीज डिनर,रूपवती स्त्रियां, किताबों के ढेर के
पीछे
अंधेरा,गरीबी,बहुत अपव्यय है? मन मुरझा जाएगा,शरीर
टूट जाएगा और सारे
विचार ढह जाएंगे।”
“ काउल! इन दोनों परिणामों के बीच एक गोल्डन मीन भी है।बीच का एक रास्ता है।”
“ दास साहब!उसे एक एक्सीडेंट समझ ले।किसी दिशा में चलते समय रास्ते में
पड़ने वाली एक छोटी-सी धर्मशाला की तरह।दोनों परिणामों के बीच एक
का होना जरूरी है,चाहे
जागृत अवस्था में हो या अवचेतन अवस्था में, रात में हम जहां
विश्राम लेते हैं वह यात्रा का अंतिम स्थान नहीं होता है।”
“ नदी के किनारे जो बालू दिखाई देती हैं,वह जन्म
से ऐसी नहीं होती।शायद उद्गम के समय पर कभी रहे होंगे विराट शिलाखंड।तूफान, वर्षा,तुषार आए
और उन्हें
तोड़-मरोड़ कर नदी
के वक्ष स्थल में बहा दिया।जहां उन्हें आश्रय मिला। कितने जंगल,पहाड़ पारकर टूटे-फूटे अंगों में क्षुद्र से क्षुद्रतर होते चले गए और अंत में
बालू में परिणित हो गए।”
काउल की जिंदगी का
इतिहास प्रकृति के इस भौगोलिक विवर्तन की तरह था। काउल के परिवार की आर्थिक स्थिति आइसबर्ग
की तरह थी।जमीदारी की आय उनके लोक-दिखावे की आमदनी का
एक मामूली हिस्सा था।हिसाब रखना नीचता का परिचय मानकर उनके पूर्वज
सोने के संग्रह और धन का हिसाब नहीं रखते थे।लक्ष्मी पर उनका
अटूट और असीम भरोसा था।युगों-युगों के लिए अपने भविष्य को सोने की ढाल में सुरक्षित समझकर
हमारे मिस्टर
काउल के दादा बीसवी सदी के हरिश्चंद्र बने
थे।जब कोई कहता कि आपकी पोशाक कितनी सुंदर दिखाई देती है तो
वे तुरंत
इस तरह की पोशाकें मंगवाकर उस कलाप्रेमी
गोष्ठी में बांट देते थे।जब कोई कहता आपका शहर से
दूर रहना हमारे
लिए बड़ा
कष्टप्रद है क्योंकि हजूर के रोजाना दर्शन
उन्हें
नहीं मिल पाते हैं तो इस हेतु तुरंत वहाँ मकान खड़ा हो जाता था, नहीं तो जुए के खेल में असुविधा हो जाती
थी।
एक बार किसी
विलायती कंपनी के बड़े रिप्रजेंटेटिव क्रोकरी बेचने के लिए आए थे।उन्होंने उनकी
इज्जत रखने के लिए दो सौ शैफील्ड चाकू, अढ़ाई
सौ ग्लासगों प्लेटें खरीदने का
आर्डर दिया।उनके दरवाजे से कोई खाली हाथ नहीं जाता, दस कोस के
भीतर उनका
सुनाम
था।
काउल महाराष्ट्र के गौरव थे।उनके बारे में कई
किवदंतियां आज भी गांव-गाँव में प्रचलित है।
दोस्तों ने कहा, काउलजी विश्व-भ्रमण
पर जाएंगे।भारत,बर्मा,श्रीलंका आदि में
दोस्तों के साथ वर्षों तक घूमते रहें।उन्होंने लौटकर देखा,उनकी अधिकांश जमींदारी नीलाम हो चुकी
थी।परिवार के परिजनों की दया से उन्होंने
मुकदमेबाजी शुरू की।
उसके बाद उनके बेटे
को
मिले अदालतों के असंख्य
सर्टिफिकेट और
जुए
का नशा। घर की धन-दौलत,जमीन,जायदाद बेचकर उन्होंने
आजीवन इन
दोनों को जीवित रखा।हमारे काउल के पिता ने अतीत के गौरव और पूंजी के
बल पर किसी तरह जिंदगी काटी।हमारे काउलजी के धरती पर अवतरित
होने के
समय तक काउल-परिवार का सारा गौरव ऐतिहासिक
वस्तु बन
कर
रह गया था।जब काउल तीन
बरस के थे, उनके पिता स्वर्ग सिधार गए थे और उनकी पाँच वर्ष की उम्र में मां भी
छोड़कर चली गई थी।परिवारहीन,संपतिहीन काउल इस दुनिया में
जीवन-संग्राम करने के
लिए अकेले अपने पाँवों पर खड़े हो गए।
उनके पास भविष्य के लिए न कोई पथ था, न कोई पाथेय। कहा जाता है कि उनके गांव में दूर
के रिश्तेदारों ने काउल
परिवार की बची हुई संपत्ति को पाने के लोभ में उनकी
हत्या करने
की कोशिश की थी।मगर
रिश्ते में लगने वाले मामा ने
उनको किसी तरह से बचाकर मुंबई भेज दिया।उन्होंने
सोचा, हत्या का अभियोग
लगे बिना
ही उनका उद्देश्य पूरा हो जाएगा। मुंबई में वह खुद ही किसी ट्राम
या बस के नीचे आकर मर जाएगा। इस तरह काउल मुंबई पहुंचे।
काउल परिवार के विशाल शिलाखंड की
धूल समय के
थपेड़ों के साथ हमारे काउल के जीवन में आई।
“ दास साहब! हर जन्म के उत्स में युद्ध का इतिहास रहता है।हर
आदमी एक एक महायुग का उपसंहार है।पुरुष के वीर्य से करोड़ों-करोड़ों सुई
की नोक से भी सूक्ष्म स्पर्म निकलते हैं।वे नारी के निर्गत
अंडों के पास जाते है। एक अंडे के लिए असंख्य स्पर्म युद्ध करते
हैं।अनेक लड़ते-लड़ते विलुप्त हो जाते हैं।अंत में जीतता वही है,जो सर्वोपरि ताकतवर
होता है।जो सबसे
तेज होता है।इन दोनों के मिलने से एक
कोशिका बनती
है।वही कोशिका मां के गर्भ में बढ़कर शिशु के रूप
में जन्म
लेती है।जन्म के बाद उसकी मां-बाप देखभाल करते
है।इस तरह संघर्ष का अंत हो जाता है।”
कुछ समय विचार-शून्य मन से
वह चुप-चाप
दूर
देखते रहे।फिर
कहना जारी रखा, “मगर मेरे जन्म
के बाद जीवन-संघर्ष खत्म नहीं हुआ।कई दिनों तक युद्ध
चलता रहा। बहुत दुख पाया मैंने। शरीर लहूलुहान हो गया।आत्मा क्षत-विक्षत।
पता नहीं,कैसे जिंदगी के सात-आठ वर्ष कट गए।जीवन्त पर्दे पर उनकी कोई
छाप
नहीं पड़
सकी।केवल एक अस्वस्तिकर-भाव भी आज भी
ताजा है- कभी- कभी याद आ जाते हैं हमारे घुड़साल और
राजमहल के खंडहर।अब
वहां सियार और सांप डेरा
डाले हुए हैं।आज तक कभी उधर जाने की इच्छा नहीं हुई।वह परिसर भयंकर लगता है।”
आठ-नौ साल की उम्र में काउल मुंबई
पहुंचे थे।उन्हें ठीक से याद नहीं, वे
कैसे पहुंचे वहाँ।शायद
मामा की कृपा
से अचानक एक दिन उन्होंने
अपने आपको मुंबई की सड़क पर खड़े पाया।ट्राम,लोगों की भीड़-भाड़ का शोरगुल उनके कानों में पड़
रहा था। किसी दुकान पर नौकर बने। दुकानदार के लिए चाय,पान लाते।
जरूरत पड़ने पर
उनके साथ
बाजार में गेहूं,चावल,दाल, सिगरेट,अगरबत्ती,साबुन खरीदने
जाते।धीरे-धीरे
उनको मुंबई रास
आने लगी।चारों
तरफ बेशुमार भागदौड़। हर तरफ आदमी, उनकी तीव्र गति।
सुबह-सुबह दुकान सजा देते।दोपहर में
बिक्री-खरीददारी।रात में दुकानदार
के बेटे-बेटी पंडित
के पास पढ़ने जाते।खाली स्लेट लेकर काउल भी वहाँ बैठ जाते। अंग्रेजी और हिंदी पढ़ाई जाती।
काम में कुछ भूल होने पर या
कभी बाजार
में नाश्ते
कर
लेने पर सही हिसाब नहीं दे पाने पर मालिक काउल को बीच-बीच
में पीट देता।मारने के बाद में वह उसे नैतिकता,सत्यवादिता,कर्मठता
की सीख
देता।मार का दर्द भूल जाने के बाद फिर से उसी काम की पुनरावृत्ति
होती।
बल्कि और ज्यादा चोरी करना शुरू कर
उसने। काम में देरी भी।दुकानदार और बर्दाश्त नहीं कर पाया।खूब मारपीट करने
के बाद
आखिर उन्हें वहां से निकाल दिया।तब तक काउल की जेब में चोरी के कुछ रुपए बचे हुए
थे।
चारों तरफ
इधर-उधर भटकने लगे वह।एक दिन एक होटल के फुटपाथ पर सोये हुए थे।पता नहीं, कब
रात बीत
गई।किसी
ने आकर उन्हें लात मारकर उठाया। “साले! यही सोने
की जगह मिली है, इतने
बड़े मुंबई शहर में?”
काउल की नींद
टूट गई।उसने देखा कि कोई हृष्ट-पुष्ट,काला-कलूटा निष्ठुर
आदमी सामने खड़ा था।एक ठेले में विभिन्न
प्रकार के अखबार लेकर वहाँ पहुंचा। उस मोटे आदमी ने ऊंची आवाज में कहा,“अबे, हटो यहां से!” काउल
थोड़ा सरककर दूर
बैठ
गया।आज का दिन कैसे कटेगा, इसी चिंता में खोया हुआ था वह।
अखबार,पत्रिकाओं के ठेलेवाले को घेरकर
कई लोग खड़े थे।उस फुटपाथ
के आगे सारी ट्राम और
बसें रुकती
थी।काउल वहाँ
बैठे-बैठे
अखबारों की खरीद-बिक्री देखते रहे।ट्राम,बस आते ही लोग उन्हें पकड़ने के लिए भागते
थे।फुटपाथ के चरो तरफ एक लंबी कतार लग जाती
थी।बीच-बीच में भीड़
खाली हो जाती थी।
काउल ने उसके पास आकर
आत्मविश्वास से कहा,“मुझे पाँच-दस
अखबार दीजिए।फुटपाथ के दूसरी तरफ कतार में खड़े लोगों को बेचकर आऊँगा।
उस हृष्ट-पुष्ट
आदमी ने
काउल की तरफ सिर उठाकर गौर से देखा। उसके
बाद उसने पांच अखबार काउल की तरफ बढ़ा दिए।और
पूछा,“तुम्हारा नाम क्या है?” “रमेश।” काउल ने कहा।
रमेश अखबार तुरंत बेचकर, फिर पांच अखबार
लेकर
गया। पैसा लाकर
उस आदमी को दे जाता था।“ इन अखबारों से खास फायदा नहीं है।लोग खुद आएंगे। हो सके तो दो-तीन पत्रिका बेचकर
आओ।फायदा होगा।” उस आदमी ने कहा।
रमेश ने पूछा, “इनका नाम क्या है?”
“यह फिल्म-फेयर,यह
ब्लिट्ज़ और यह करंट।”
रमेश एक फिल्मफेयर लेकर
चौराहे पर चला गया।एक कार में मेमसाहब बैठी हुई थी।ट्रैफिक लाइट लाल थी।कुछ समय
इंतजार करना
होगा।
रमेश ने कहा, “मेमसाहब! कल से
कुछ भी नहीं खाया है।यह खरीदोगी तो मुझे
कुछ खाने को मिल
जाएगा।”
मेमसाहब ने तुरंत फिल्मफेयर
खरीद ली।रमेश
एक और ब्लिट्ज़ लेकर दूसरी गाड़ी के
पास गया
और
वही बात दोहराई,“साहब! इसे लेंगे तो मुझे खाना नसीब होगा।”
वैसे ही त्तीसरी
पत्रिका करंट बेच दी।रमेश के प्रयास से उस दिन अनेक
पत्र-
पत्रिकाएं बेची गई।वह ठेलेवाला आदमी रमेश की दक्षता पर बहुत
खुश हुआ।
दिन के दस बज चुके थे।सड़क
पर भीड़
धीरे-धीरे
कम हो रही
थी। साहब
लोग दफ्तर में जा चुके थे। और
अखबार अब कौन खरीदेगा? अब जो भी बिकेगा, फिर शाम को।
रमेश ने अपनी मर्जी से उस
ठेलागाड़ी को ठेलने लगा।उस मोटे आदमी ने कुछ नहीं कहा। रास्ते में पूछा,“रमेश!
तुम यहाँ क्या काम करते हो?”
“एक दुकान में काम
करता था।चोरी की तो पीटकर मुझे निकाल दिया।”
रमेश का
स्पष्ट उत्तर उस मोटे आदमी को बहुत अच्छा लगा।फिर हंसकर उसने
पूछा ,“कितने रुपए?”
“ पाँच रुपए।”
“बेवकूफ!”
“ मां-बाप है?”- मोटे
आदमी ने पूछा।
“नहीं।”
“ मुंबई में कब से
हो?”
“ एक साल से।”
“बेईमानी करोगे?”
“ नहीं।”
“चल, मेरे साथ।”
ठेलागाड़ी को एक गंदी गली में लगा
दिया।छोटा,अंधेरा और गंदा काला-काला घर। वहां यह
मोटा आदमी
रहता
था- उसका नाम था सलीम।
रमेश ठेले से सारे
अखबार लाकर कोठरी में रख दिए।सलीम ने कहा,“बेटा, अखबार
करीने से रखो।नीचे
बड़े-बड़े अखबार,ऊपर-ऊपर
छोटी-छोटी
पत्रिकाएं।”
अखबारों
को सजाने
का काम पूरा हुआ।
सलीम ने कहा,“ये रोटी खाओ।उस मेज पर बैठ जाओ।”
रमेश ने खाना
खाकर पानी
पी लिया।
इसी बीच,सलीम नहा-धोकर अपनी
खाकी कमीज,हुगुला
पैंट
पहनकर एक टूटे आईने में भाग-भाग में अपना चेहरा देखने
लगा।पूरा चेहरा एक साथ उसमें देखना मुश्किल था!पहले सिर,फिर चेहरा।सलीम ने बाकी रोटियां चीनी के साथ खाली।पानी पी लिया।
रमेश को देखकर उसने कहा, “चल मेरे
साथ। ऑफिस
में ये सारे अखबार लौटाने होंगे।छोटी-छोटी किताबें वहाँ
रहने दो।ताला लगा दो।”
दोनों बाहर निकल पड़े।एक
गली से
दूसरी गली, एक
सड़क से दूसरी सड़क पार करते हुए वे अखबार के
कार्यालय पहुंचे।बाकी अखबार
जमा करवा दिए।
सलीम ने कहा,“मैं अभी यहीं
रहूंगा।तीन बजे तक तू इधर-उधर घूम-फिरकर फिर उसी खोली में आ जाना। ये
ले चवन्नी।”
सलीम उस अखबार-कार्यालय
का दरबान
था।
अखबार-कार्यालय
में कुछ
समय इधर-उधर घूमते रहे काउल। दुकानदार के पास रहने से जितना भाषा-ज्ञान
हुआ था,उससे
दीवारों,किताबों में लिखे
हिन्दी और अङ्ग्रेज़ी अक्षरों को पढ़ पा रहे थे।
वहाँ से बाहर आकर वह
खूब घूमे।तीन
बजे हाजिर हो गए उस खोली में।सलीम
ने एक कप चाय पी।रमेश ने एक रोटी खाई।दोनों चल
पड़े फिर से होटल के पास वाले फुटपाथ की तरफ।रमेश
ने ठेलागाड़ी चलाना शुरु किया।होटल में आते-जाते
लोगों को देखते हुए वह पत्रिकाएँ लेकर वहां पहुंच गया।कुछ लोग
वहाँ से शराब खरीद रहे थे।इसी फुटपाथ पर पत्र-पत्रिकाएँ,सस्ती हिंदी प्रेम-कहानियां सजाकर वह रखवाली करने
लगा।
काउल कहा करते थे कि
उन्होंने अपने जीवन में व्यापार सलीम से सीखा है। एक दिन सलीम ने कहा,“रमेश! बस्ती में
जितने दूसरे हाकर हैं,रोज तड़के
उनके
आने से पहले लोगों के घरों में अखबार लेकर पहुंच जाओ। फिर चलेंगे होटल के
आगे।”
रमेश राजी हो
गया।भोर-भोर हिंदी,उर्दू,मराठी के अखबार
लेकर वह आस-पास के लोगों के घर पहुंच जाता
था।उनसे पैसा लाकर सलीम को देता था।फिर दोनों होटल के सामने चले जाते
थे।अखबार बेचकर लौटकर खाना खाने के बाद खोली
में ताला लगाते थे।सलीम अपनी नौकरी पर
चला
जाता।काउल
सड़कों पर घूमता।दोनों दिन के तीन बजे मिलते।शाम तक फिर किताबें
बेचते। लौटकर गत्ते
बिछाकर
सलीम सो जाता था और रमेश नीचे।
कभी-कभी सलीम
रमेश को अठन्नी,रुपया देता था।
एक दिन सलीम ने कहा, “ अबे!जरा अच्छी
तरह हिंदी,अंग्रेजी पढ़ना सीख।रेलवे-स्टेशन
पर अखबार
के साथ किताबें भी बेचेंगे।खूब मुनाफा होगा।”
फिर उसके बाद दोपहर में सड़क पर घूमने के बजाय रमेश स्कूल जाने
लगा। क्रिश्चियन स्कूल में फीस नहीं
लगेगी।केवल ईसा का नाम लेना पड़ेगा।सलीम ने स्कूल की मालकिन
मदर
को समझाया,“यह ईसाई
लड़काहै,मां-बाप कोई नहीं है, अनाथ है।आप इसे ईसा के बारे में समझाइए।” रमेश को भी सावधान
कर दिया कि वह कभी सच बात न करें वर्ना वह बदनाम हो जाएगा।
काउल सुबह अखबार,मैगजीन,हिंदी-अंग्रेजी की किताबें
बेचता था।दिन में स्कूल में पढ़ने जाता था।
उस गली के पास ही एक और बड़ी गली थी।दिन में सुनसान।रात में असीम
भीड़-भाड़ और भड़कीली
रोशनी।सुबह तक लोगों
की जमघट।चारो तरफ नाच-गान का अड्डा।सस्ते इत्र छिड़ककर बालों में फूल लगाकर
स्त्रियाँ दरवाजे पर खड़ी रहती थी।लोग अंदर जाते।चारों
ओर शराब की बदबू।
“सलीम भाई! क्या माजरा है?” काउल
ने पूछा।
“यह रंडियों की मंडी है।”
कभी-कभी सलीम महीने के पहले
हफ्ते में तंख्वाह पाने के बाद वहाँ
जाता था। कभी-कभी रमेश उसके साथ जाता था।उसने देखा कि वहाँ खूब फूल
बिकते थे। वह पुष्पालय से एक–दो रुपए के फूलों की माला खरीदकर एक-दो वैश्याओं के
घर के आगे खड़ा हो जाता था। विशेषकर जहां सलीम जाता था। सलीम की प्रतीक्षा के समय
वह दूसरे ग्राहकों से फूलमालाओं की कीमत बढ़ा देता था।
जब सलीम वैश्या के पास
होता था तब वह उसे एक फूल माला देकर आ जाता था।यह देखकर सलीम बहुत खुश होता
था।
देखते-देखते चार-पाँच
वर्ष बीत गए।पढ़ाई,अखबार बेचना, फूल बेचना चलता रहा।इसी बीच रमेश ने
करीब 100 रुपए की कुछ पूंजी भी जमा
कर ली थी। सलीम के घर और गत्ते बिछाने की
जरूरत नहीं थी। दोनों के लिए दो कैनवास की चारपाई आ चुकी थी।रोटी
के साथ कभी-कभी मीट भी मिल जाता था कमरे में छोटा-सा बिजली का बल्ब जलने लगा।
काउल
ने कहा,“इस शरीर के खून में
पाप है।इसके
बदल जाने की तुम आशा कैसे कर सकते हो?”
समय के
साथ-साथ माया और लता नामक वैश्याओं,दलालों,अपराधियों, रामधन और हरीसिंह जैसे दुकानदारों के साथ घनिष्ठ
परिचय हो गया।बड़ी होटल के मालिक के साथ भी जान-पहचान हो गई।बस्ती के डाक्टरों, वकीलों को दुआ- सलाम करने से कभी-कभी वे रमेश के रोजगार
के हाल-चाल
पूछ लेते थे।स्कूल की मदर कहती, “ रमेश, अगले साल पढ़ाई पूरी हो जाएगी।क्या तुम कॉलेज में पढ़ना चाहोगे?अगर चाहते हो तो
मैं सुविधा करा दूंगी।ईसाई बच्चों के लिए फीस नहीं लगेगी।”
रमेश ने कहा,“सलीम भइया से
पूछकर बताऊंगा।”
उस दिन रमेश को बुखार था।कई दिन बीत गए,मगर उसका बुखार नहीं उतरा। वह अकेले उस खोली में
पड़ा रहता।सारी दुनिया उसे अंधेरी लगती थी।सलीम भी नहीं था। वह अपने गांव चला गया
था।उस अंधेरी कोठरी में रमेश थोड़ा-बहुत पानी
पीकर बुखार में पड़ा हुआ था।रमेश सोचने लगा,इतना बड़ा शहर, इतने लोग,मगर कोई भी
मेरा अपना
नहीं है!सभी के कितने संबंधी और आत्मीय होते हैं! मगर मां-बाप,भाई-बंधु
कोई भी तो मेरा
नहीं।
दिन में ग्राहक
नहीं होने के कारण केवल माया रमेश के पास आई थी और उसने डाक्टर को बुलवाया।वह खुद
जाकर फल
और दवाई लाई।पास
में बैठकर
कहानी सुनाने लगी।
कहानी सुनाते-सुनाते उसकी
आँखें छलछला आई।काउल कहने लगे,“ऐसी ममता आज तक मैंने
नहीं देखी।बाद में माया किसी सरदार के साथ चली गई।आज तक उसी घर में रहती
है।”
सलीम ने कहा,“यह मौका छोड़ना ठीक
नहीं है।कॉलेज में नाम
लिखवा लेने में कोई नुकसान तो नहीं हैं।”
काउल ने मदर को हाँ
कह दिया। अगले साल
कॉलेज में भर्ती हो गया।
फूलों का काम छोड़ दिया।अखबार बेचना
छोड़ दिया।मदर ने उसे किसी चमड़े की दुकान में रात को हिसाब-किताब लिखने
की नौकरी दिलवा दी।रमेश सलीम के साथ में रहता था।कॉलेज से
लौटकर शाम को चमड़े की दुकान पर चला जाता था।वह
उर्दू के शब्दों
को
अंग्रेजी में लिखता था,जो कमाता था
वह
सब सलीम को दे देता था।पढ़ाई की किताबें,खाने-पीने का खर्च,पेंट-कमीज के खर्च आदि
के लिए सलीम हिसाब से पैसा देता था।
आज भी सलीम काउल के कारखाने
में सुपरवाइजर का काम करता है।काउल
उसे सलीम भाई के नाम से बुलाता है।वह अपने व्यापार
के बारे में सलाह मशविरा एक ही आदमी के साथ करता है-वह है सलीम।सलीम जो
चाहेगा,वही
होगा।काउल
ने
कभी उसकी उपेक्षा
नहीं की।
काउल चमड़े के व्यापार का सारा भेद जान
गया।धीरे-धीरे चमड़े के व्यापारियों के साथ उसके
संबंध बनने लगे।उसे चमड़े के बाजार की जानकारी
हो गई। काउल ने
सलाह-मशविरा किया कि चमड़े की वस्तुएँ विदेश में निर्यात किए बिना मुनाफा नहीं होगा।मालिक भी राजी हो गए।कोरिया,जापान और
मालय देशों को सामान एक्सपोर्ट होने लगा।बिक्री बढती गई और मुनाफा भी।साथ-ही-साथ उसका भाग्य भी
बदल गया।
कॉलेज की पढ़ाई
खत्म होते-होते काउल इस व्यवसाय में
पुराने हो चुके थे।वह साबुन,अखबार,फूलों के गजरे बेचने
से लेकर चमड़े
के व्यवसाय तक
सब-कुछ जान चुके थे।कभी-कभी
स्टॉक एक्सचेंज चले
जाते हैं,हिसाब
से शेयर-मार्केट
में पैसा डालने के लिए।जिस कंपनी के शेयर भविष्य
में जरूर
चमकेंगे, आज
खरीदकर कल बेच देते
थे।वह क्लब
जाने लगे।क्लब में उन्होंने सुना कि ऑक्सीज़न
कंपनी के अमेरिकी
व्यापारियों के साथ समझौते की बात कल अखबारों में छपेगी।काउल उसके
शेयर खरीदने का फैसला किया,क्योंकि कुछ दिन में वे शेयर बहुत
ऊपर उठेंगे।तिगुना
फायदा होगा।वह
स्टॉक-एक्सचेंज के
पक्के खिलाडी बन गए।
निर्यात बढ़ाने के लिए वह जापान चले
गए।वहां
व्यापारियों से कॉन्ट्रैक्ट किया, उनकी मदद से यहां टैनरी कारखाना बिठाने
के लिए।वापस आकर अपनी कंपनी के मालिक से कहा,“इसे आप प्राइवेट लिमिटेड कंपनी बना दीजिए। इसका भविष्य उज्जवल है।”
और चमड़े की दुकान कंपनी में बदल गई। काउल
बने उसके डायरेक्टर।भारत के हर राज्य के
विभिन्न शहरों में कंपनी की शाखाएं खुलने लगी।मालिक का काउल पर पक्का विश्वास था। कंपनी के मालिक की
इसी बीच मृत्यु हो गई।निसंतान मालिक की पत्नी ने कंपनी के अधिकांश शेयर काउल
के नाम कर दिए। इस तरह काउल भारत की प्रसिद्ध चमड़ा कंपनी के मैनेजिंग
डायरेक्टर बने।मालिक की विधवा-पत्नी और उनके अन्य
आश्रितों की जी-जान
से उनके अंतिम दिनों तक उन्होंने सेवा की।
बीच-बीच में वह
स्मगलिंग करने
लगे।सोना
विदेशों से चोरी छुपे आता था।गैर-कानूनी ढंग से विदेशी मुद्रा जमा करने
लगे।वह
शराब पीने लगे।बदनाम औरतों के साथ मित्रता बढ़ाने लगे।रेस-कोर्स में जाने
लगे।
“ दास साहब!यह मेरा कलंक भरा इतिहास है।सड़क के कूड़े-कर्कट
की तरह
दुर्गंधमय।मगर जो कीड़ा
परिस्थितिवश उस नर्क में पैदा होता है,उसके लिए और कोई
विकल्प जीवन में संभव नहीं हो पाता है।मैं फिर सोचता हूं यह
जिंदगी क्या खराब है?”
नृत्य धीमा पड़ रहा था।शराब के जाम खाली
हो गए थे।रात ढल चुकी थी।सुबह होने वाली थी।किसी उत्तर की प्रत्याशा नहीं थी।उस
समय काउल
कुछ उपलब्धि पाने की अवस्था में नहीं थे।
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