आमुख


आमुख
 ओड़िया साहित्यकार डॉक्टर प्रसन्न कुमार बराल द्वारा संपादित ओड़िया पत्रिका गोधूलि लग्न में जब मैंने बैरिस्टर गोविंददास के अन्यतम उपन्यास अमावस्या का चांद पर उनकी समीक्षा पढ़ी तो मैं भाव-विभोर हो गया।मुझे ऐसा लगा मानो मेरे हाथ में अमूल्य साहित्य का कोई छुपा हुआ बहुत बड़ा खजाना लग गया हो।तत्काल मैंने भुवनेश्वर में लगे पुस्तक मेले से इस उपन्यास को खरीदने की व्यवस्था की और खरीदकर उसे बड़े चाव से पढ़ने लगा।जैसे-जैसे मैं उसे पढ़ते जा रहा था,वैसे-वैसे इस उपन्यास के मुख्य पात्र काउल में  मुझे कभी भगवतीचरण वर्मा के कालजयी उपन्यास चित्रलेखा के नायक बीजगुप्त तो कभी मुंशी प्रेमचंद के विख्यात उपन्यास सेवासदन के गजाधर पांडे तो कभी धर्मवीर भारती के कालजयी उपन्यास गुनाहों के देवता का नायक चंदर की याद ताजा हो जाती थी।सभी पात्र एक से बढ़कर एक थे!उपन्यास के महिला पात्रों में नीरा सेवासदन की सुमन लगती तो मनीषा गुनाहों के देवता की सुधा दिखने लगती तो बाईजी चित्रलेखा की नर्तकी चित्रलेखा की प्रतिच्छाया प्रतीत होने लगती थी।इतने सारे पात्रों की चारित्रिक विशेषताओं,अभिनेयता, मनोस्थितियों को एक कलेवर में समेटकर उपन्यासकार बैरिस्टर गोविंददास ने भारतीय साहित्य में अपना नाम अमर किया है।ऐसा लगता है कि तत्कालीन हिंदी साहित्य में भी पाप-पुण्य,भाग्य की विडम्बना,शून्य से शिखर तक पहुँचने वाली विचारधारा दृष्टिगोचर थी।  सेवासदन की वेश्या सुमन को उसका साधु बना पति गजाधर पांडे वेश्याओं के बच्चों को पढ़ाने के लिए सामाजिक कार्यकर्ताओं में मदन सिंह आदि की मदद से आवासीय विद्यालय सेवासदन जैसे खोलने की सलाह देता है तो इस उपन्यास में वेश्या नीरा की आर्थिक मदद कर काउल पतित स्त्रियों के बच्चों को पढ़ाई के लिए स्कूल खुलवाकर उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा लौटा देता है।दोनों आदर्शवादी घटनाओं का सादृश्य बहुत ज्यादा है!
पाप-पुण्य को परिभाषित करने के लिए उपन्यासकार ने भगवतीचरण वर्मा की चित्रलेखा के पात्रों जैसे श्वेतांक,विशालदेव,कुमारगिरि,बीजगुप्त,नर्तकी चित्रलेखा,यशोधरा और दृश्य-विधान  के लिए पाटलिपुत्र के राजगृह,हिमालय की प्राकृतिक छटा आदि का सहारा लिया है।असल में उपन्यासकार की दृष्टि में पाप-पुण्य व्यक्ति विशेष की मानसिक स्थिति और समय के सापेक्ष अपना रूप बदलते रहते हैं।धर्मवीर भारती के गुनाहों का देवता में सुधा की उपन्यास के अंत में अपने प्रेमी चंदर के सामने प्रसव-पीड़ा के दौरान मृत्यु हो जाती है तो बैरिस्टर गोविंद दास के उपन्यास अमावस्या का चांद में मनीषा की कैंसर हॉस्पिटल में अपने प्रेमी काउल के लापता होने के गम में और उसके लौटने का इंतजार करते-करते मृत्यु हो जाती है।दोनों उपन्यासों की वेदना भी काफी हद तक मिलती-जुलती है।क्या यह सादृश्य संयोगवश हो सकता है अथवा तत्कालीन भारतीय साहित्यकारों की सम विचारधारा इसके मूल में हैं?  जिस तरह गुनाहों का देवता सन 1954  में ज्ञानपीठ,दिल्ली से प्रकाशित होकर आज तक अपने 70 संस्करण पूरे कर चुका है,इसी तरह अमावस्या का चांद ने सन 1964  में ओड़िशा बुक स्टोर,कटक प्रकाशित होकर अपने 33 संस्करण पूरे कर चुका है।आज भी दोनों उपन्यास अपनी-अपनी जगह पर लोकप्रियता की पराकाष्ठा पर है।यह देखकर मैंने हिंदी में इस उपन्यास का अनुवाद करने का निश्चय किया।मेरे परम मित्र उमाकांत मोहंती ने मेरे इस निर्णय को और ज्यादा सशक्त कर दिया।उनके अनुसार अगर हिन्दी का कोई श्रेष्ठ प्रकाशक  इस पांडुलिपि को प्रकाशित करता है तो यह उपन्यास भी अवश्य हिंदी जगत में विशिष्ट स्थान प्राप्त कर लेगा। इस तरह मैंने साहित्यिक अनुवाद कर अपना धर्म निभाया।अब परिणाम अच्छे रहेंगे या नहीं, यह तो पाठकों की प्रतिक्रिया और उपन्यास के भाग्य पर निर्भर करेगा।फिर भी मैं आशान्वित हूं कि यह अनूदित उपन्यास आज नहीं तो कल, हिंदी-जगत में कामयाबी के शिखर को अवश्य स्पर्श करेगा।
ईश्वर से यही कामना करते हुए
 दिनेश कुमार माली
तालचेर



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