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5.
नवंबर की
शाम।ठंडी-ठंडी हवा नायलॉन
के परदों से होती हुई कमरे में सीधी प्रवेश कर रही थी।कमरे की एक दीवार पर दुशासन द्वारा द्रौपदी
के वस्त्र-हरण का चित्र टंगा हुआ था। चित्र में द्रोपदी लगभग नग्न थी।चित्र में उसका प्रतिवाद मामूली लग रहा था।काउल ने सोचा कि शायद द्रौपदी को अपने पंच पतियों या कर्ण के आगे अपना रूप-सौंदर्य दिखाने का अच्छा मौका मिला है। दुर्योधन पूरे उत्साह के
साथ दिखाई दे रहा था। नीले प्लास्टिक पेंट ट पर सोडियम लाइट का प्रकाश कमरे में
उन्माद पैदा कर रहा था।एक कोने में छोटी-सी तिपाई पर कांच के गिलास में फूलों का गुलदस्ता रखा हुआ था।दूसरी
तरफ किसी सुंदर बलिष्ठ युवक की
गोदी में सोई हुई नारी का चित्र बना हुआ था।दरवाजे के पास,दीवार पर एक
कोणार्क जैसी केली-क्रीडा
में रत नर-नारी की
मूर्ति रखी हुई थी।पास में एक बड़े पर्दे की ओट में सरोज,तबला और हारमोनियम रखा हुआ था।कमरे के बीच में सफ़ेद चादर से ढका एक मोटा गद्दा बिछा हुआ था।जिसके चारों ओर मखमली खोल वाले गोल तकिए सजे हुए थे। दीवार के सहारे लिपटी हुई हरी लताएं कुंजवन का माहौल बना रही
थी।काउल प्रतीक्षा
कर रहे थे।तभी फूल वाले
ने आकर मल्ली-फूलों का गजरा काउल
के गले में डाल दिया।काउल को सलाम किया। काउल ने दस रुपए के नोट में एक रुपए का नगद सिक्का बांध कर फूल वाले की पेड़ी की
तरफ फेंक दिया।
कुछ समय के
बाद पर्दे के पीछे से घुंघरुओं की हल्की-हल्की छमछम की आवाज उस कमरे में गूंजने लगी।फिर बाईजी का आर्विभाव होता है।उसके शरीर पर नीली साड़ी,होठों पर गुलाबी रंग और माथे पर दीपशिखा का एक त्रिकोणी टीका।काउल ने
अपनी जेब से गुलाब की
कली बाहर निकाली और बाईजी के पास जाकर कहा,“हजूर की मेहरबानी हो तो दोनों कलियाँ एक साथ हो जाए।” काउल ने बाईजी के सिर पर हाथ रखकर नीचे कर दिया।बाईजी ने सलाम कर अपनी
सहमति जताई।काउल ने वह फूल बाईजी की बेणी में खोंस दिया।पास आने के कारण बाईजी की ‘इवनिंग इन पेरिस’ वाली महक उनके मन में भर गई।
“ बाईजी! आसमान की तरह रूप असीम होता है,आपको देखे बिना एतबार नहीं होगा।आज
स्वर्ग में उर्वशी भी ईर्ष्या से जल रही होगी।”
पिछले महीने
भर से काउल हर शाम उनके मुजरे में हाजिर हो रहे थे।
“स्वर्गलोक की उर्वशी को पाना जितना आसान है,मृत्यलोक
के इन काउल
साहब को पाना उतना ही कठिन है।चिड़िया से भी ज्यादा चंचल और भँवरे से ज्यादा अस्थाई।”
“तुम मुझे
भूल जाओ तो यह हक है तुम्हारा।
मेरी बात कुछ और है मैंने तो मोहब्बत की है।
मेरे दिल की, मेरे
जज्बात की कीमत क्या।
उलझे-उलझे उन ख्यालातों की कीमत क्या।
मैंने क्यों प्यार किया,तुमने
न क्यों प्यार किया।
इन परेशान सवालत की कीमत क्या।
तुम यों यह भी न बताइए,यह हक है तुमको
मेरी बात कुछ और है मैंने तो मोहब्बत की है।”
काउल ने गले से गजरा निकालकर की बाईजी के कदमों में रखकर कहने लगे,“बाईजी!तेरे कदमों के घुंघरू चाहे न बजे,मगर यह काउल आज से तेरे चारु कदमों के आलिंगन का गुलाम रहेगा।”
“तुमको
दुनिया के गम और दर्द से
फुर्सत न सही
सबसे उलफत सही मुझसे ही मुहब्बत न सही
मै तुम्हारी
हूँ,यह मेरे लिए क्या कम है
तुम मेरे होके रहो,यह मेरी किस्मत न सही
और भी दिल को जलाओ तो यह हक है तुमको।”
बाईजी ने कहा,“वाह!वाह! गजब
है आपकी शायरी।”
“काउलजी,खिदमत का
मौका दें? कुछ पेश करूं? व्हिस्की,रम,वाइन?”
हर रोज बाईजी इस तरह की भाषा में खिदमत करती है।
काउल ने कहा,“चिंता मत करो बाईजी,मैं आज अकेले नहीं हूँ।फारस देश के हृदयस्थली से चुराकर लाया हूँ शैंपन।जिस बगीचे में यह पैदा हुई है,वहीं से लाया हूँ।”
ड्राइवर ने शैंपन और साथ में शैंपन पीने के प्याले लाकर दे दिए।काउल की गाड़ी में पीने के लिए अलग-अलग किस्म की शराब का इंतजाम हमेशा रहता हैं।
शैंपन के दो प्याले भरकर काउल ने एक बाईजी के लिए उठाया।बाईजी ने हाथ जोड़कर मना कर दिया।
काउल ने कहा,“तुम तो खुद
शराब का नशा हो।शराब तुम्हारे आगे फीकी है।तुम तो खुद ही फूलों की सुगंध हो।फूलों की तुम्हें क्या जरुरत है?तुम तो खुद संगीत के सुर हो,संगीत
तुम्हारे लिए अहैतुक है।”
मुजरा शुरू
हो गया।सरोज,तबला बज उठे।बाईजी ख्याल,गजल,ठुमरी और भजन गाने लगी। ममता के निवेदन के साथ,उर्वशी के अमर प्रेम गीतों पर राधा के अभिसार में वह
नाचने लगी।
नृत्य-संगीत के बीच बाईजी ईशारे करती।घूंघट के भीतर अपनी घूमती आँखों से वह निमंत्रण देती। नाचती आँखों और
रंगीन होठों का यह आमंत्रण काउल के रोम-रोम को आहलाद्वित कर रहा था।काउल ने बाई जी को छूने के लिए अपना हाथ आगे बढ़ाया। बाईजी ने उनकी इच्छा का आदर करते
हुए सलाम किया।नूपुर बज उठे।सारा माहौल झंकृत हो गया।काउल के स्नायु उत्तेजित हो
गए।सारा शरीर उच्छृंखल हो गया। उठकर पुष्पमाला को बाईजी के गले में डाल दिया।नूपुर की झंकार तेज होती गई।सुरों की लहरों में कशिश बढ़ती गई।काउल
बेकाबू हो गए।
रात शैशव पार्कर जवान हो चुकी थी।घंटे पर घंटे बीत गए,काउल को पता
ही नहीं चला। धीरे-धीरे काउल सुरा,सुंदरी और संगीत की मादकता से मतवाले होते चले गए।पता नहीं क्यों, काउल आज इतने उन्मत्त हो गए!पिछले कई दिनों से काउल बराबर बाईजी के पास आ रहे थे, मगर आज तो नशे में एकदम पागल हो जा रहे
थे।
“बाईजी,उत्तेजित करने की जिसमें क्षमता है,वही उसे शांत करने की ताकत भी रखता है। निर्वापित कर दो इस आलोकमाला को।जिससे तुम्हारे रूप में यह प्रेम का ताज चमक
उठे। अपने आलिंगन-पाश में मेरी धडकनों को शांत कर दो।उसका उचित इनाम भी मिलेगा।”
काउल दोनों हाथ फैलाकर आलिंगन की इच्छा जताते हुए कहने लगे,“अब एक लम्हे की देर बर्दाश्त नहीं होती।”
बाईजी
चुपचाप बैठी थी।अपनी हस्त-रेखाएँ देख रही थी।बीच-बीच
में उधर देख लेती थी। कुछ समय बाद वह कहने लगी, “काउलजी! स्नायु की शांति के लिए आराम
की जरूरत है,उत्तेजना की नहीं।फिर अब तो सवेरा होने जा रहा है।”
काउल ने कहा,“हां,रात इस मिलन
के आखिरी पलों
तक अलबत्ता इंतजार करेगी।यह मेरी ज़िम्मेदारी है,बस,तुम अपना कर्तव्य पूरा करो।”
काउल बाईजी के कदमों में उसके हाथ थामकर जमीन पर लौटने लगे।
“ कर्तव्य? अपना कर्तव्य तो कब से निभा रही हूं,काउल साहब।आपको साथ दे रही हूँ।नाच-गान कर
रही हूँ।किसी में कोई कमी रह गई है तो कहो?”
“बाईजी! मजाक
मत करो।काउल ने कभी प्रतिदान देने में कमी नहीं रखी है।तुम्हारी जबान से
जो निकलेगा,आज की रात के सेवा के तौर पर वही सौगात दूंगा।”
काउल कहते जा रहे थे,“बाईजी,वक्त बर्बाद हो रहा है।दुखी हो जाएगी यह रात, कष्ट
पाएगा यह प्रेम,तकलीफ होगी
दोनों दिलों को।”
“ काउल,तुम्हारे साथ मिले बहुत दिन नहीं हुए।मगर इन कुछ
दिनों में आपका ऐसा ईशारा तो आज पहली बार देख रही हूं।” थोड़ा मुस्कुराकर बाई जी ने कहा, “क्या पारस से लौटने का यह नतीजा तो नहीं है?”
काउल इधर-उधर
की बातें सुनने के
लिए तैयार नहीं थे।वह नारी शरीर के जरिए पाशविक शक्ति की प्रखर विजय चाहते थे।इस समय जिंदगी की बाकी सारी बातें उनके लिए हेय,मूल्यहीन
और अहैतुक थी।
अपने दोनों हाथों से बाईजी के शरीर को उन्होंने पकड़कर
कहने लगे,“निष्प्रभ करो इस आलोक को।मेरे वक्ष की अग्नि शांत हो जाए।”
उनके होठ कांपने लगे।सारे शरीर में उन्माद
छा गया।
खूब प्रयास करने के बाद धीरे से बाईजी ने सावधानी से खुद को काउल से अलग कर दिया। “काउलजी,जरा होश में आओ।” बाईजी की आवाज में दृढ़ता थी।
काउल ने कहा,“मुझे कुछ पल अपना पौरुषत्व सिद्ध
करने में मदद करो, बाईजी और
फिर सुनूंगा जिंदगी भर,जो कहोगी।”
कुछ समय जमीन पर मूर्तिवत
बैठी रही बाईजी।तानपुरा
हटा दिया,घुंघरू खोल दिए,घूँघट से मुंह बाहर निकाल दिया।संयत भाव
से काउल की तरफ
देखने लगी।काउल के
बिल्कुल करीब जाकर उनके हाथों को अपने हाथों में ले लिया।कहने लगी,“काउल,पता नहीं क्यों,पिछले कुछ
दिनों में तुम्हें अपना समझने लगी थी।आज तुम मुझसे क्या चाहते हो?”
“तुम्हारे गुलाबी होठ,तुम्हारा
गरम बदन।”
“मन के बिना ये सब बेकार है, काउल।”
“ बाईजी,मन शरीर के
पीछे दौड़ता है।शरीर में सिर्फ एक भूख होती है और मन शरीर में होता है।”
“ठीक है,काउल!जरा
अंदर चलो।” धीमे-से उसने कहा।बाईजी हाथ पकड़कर काउल को एक अंधेरे
सुनसान कमरे में ले
गई।चांद के चमक जैसी सफेद कोठरी।दीवार पर तांडव करते हुए शिव का चित्र
बना हुआ था।कोने में दुर्गा की छोटी मूर्ति के नीचे अगरबत्ती जल रही थी।यहाँ न कोई
ऐसी मादकता थी,न कोई ऐसे ईशारे। देवी-प्रतिमा
की तरह इस परिसर में पवित्र
वातावरण था।एक छोटी-सी
खटिया मच्छरदानी से ढकी हुई थी।
बाईजी काउल को वहाँ लेकर गई।मच्छरदानी ऊपर उठाई।काउल ने देखा,वहाँ
एक नन्हा शांत कोमल शिशु निश्चिंतता से सो रहा था।
काउल का नशा
काफ़ूर हो गया।पूछने लगा,“बाईजी, यह तुम्हारा है?” बिना कुछ
उत्तर दिए वह काउल की तरफ विनय भरी निगाहों से देखती रही।
“काउल, यह मेरे मातृत्व का गौरव है। नारी का गर्व है,जो आज मेरे लिए लज्जा की विषय –वस्तु बन रहा है।अपनी प्रतिष्ठा के आगे अवरोधक है। ”
“बाईजी,यह तो
नारीत्व की अवश्यंभावी परिणीति है!उसमें
दुखी होने की कोई बात नहीं है।”
“हम सभी लोग परिस्थितियों को दोष देते हैं,उसकी दुहाई देकर यथार्थ में हम कितने कुकर्म कर डालते हैं।मैं भी एक दिन वही बात कर रही
थी,जिस दिन मैं बाल-विधवा
बनी।बनारस में अन्य लोगों के साथ
शामिल हो गई।वहां समाज था,वहां जाती-प्रथा थी।सब-कुछ
छोड़कर मैं बाईजी बन गई।नृत्य-संगीत में
भाग लेने लगी।”
तभी बच्चा उठ गया।बाईजी ने उसे गोद में लिया।
काउल ने
पूछा, “और यह बच्चा?”
“ इसकी एक लंबी कहानी है!तुम्हारे पास समय नहीं है और सुनने की जरूरत भी नहीं है। फिर अपनी प्रेम-कहानी किसी परपुरुष को सुनाना अच्छा नहीं लगता।”
“बाईजी,जो शांति
तुमसे चाहता था,वह थी मेरे शरीर के स्नायु-मण्डल की।उसे शांत करने के लिए कोई कमी नहीं है इस महानगरी में।मगर शायद तुम्हारी जिंदगी में प्रेम-कहानी का अभाव है और ऐसे भी मैं प्यार-व्यार में कोई विश्वास नहीं
करता।शायद तुम्हारे जीवन से कुछ सीख मिल जाए।”
बाईजी ने काउल को बैठने का संकेत किया।
बाईजी की
आंखें अतीत की यादों से भर चुकी थी।अपने
प्रेम की गौरव-गाथा वह कहने लगी, “करीब चार-पाँच वर्ष पहले
की बात है।मैं ग्रामोफोन
के रिकॉर्ड पर नाच-गाने का अभ्यास कर रही थी।पाँवों में घुंघरू बंधे हुए थे।आज भी याद है,वह गीत एक भजन था।अंदर माता-पिता भाई सब सो गए थे।रात काफी हो गई थी।तभी
किसी सुंदर सलोने चेहरे वाले युवक ने अचानक मेरे कमरे में प्रवेश किया।उसकी उम्र भी कोई खास नहीं थी।वह कहने लगा,“बाई जी,सलाम!कुछ नाच-गाना हो सकेगा? हालांकि
कुछ देर हो गई है ...... फिर भी..........
”
मुझे लगा जैसे वह खूब घबराया हुआ था।नृत्य-संगीत के लिए नहीं आया था, न मेरे लिए आया था।शायद वह कहीं से भाग कर आया था।रिकॉर्ड चालू ही था।
कहने लगा,“बाईजी! शराब
होगी?”
“शायद थोड़ी-बहुत
हो।बाहर से तो इस वक्त मंगवाई नहीं जा सकती?”
घर पर थोड़ी-सी
व्हिस्की थी, मैंने लाकर उसके सामने रख दी।
वह फिर पूछने लगा,“बाईजी रात खत्म होने का नाच-गान देखने-सुनने का कितना देना पड़ेगा?”
मैंने कह
दिया,“हजार।”
हाथ से घड़ी,अंगुली से अंगूठी,गले से सोने
की चेन निकालकर मेरे हाथ में रखते हुए कहने लगा,“इनकी कीमत डेढ़ हजार से कम नहीं होगी।सवेरे बाजार में बेच कर
पैसे ला दूंगा। ऐतबार करो।फ़िलहाल ये सब रख लो।मगर मुजरा हो जाए,बस।” विनतीपूर्ण आवाज थी उसकी।वह व्हिस्की पीए जा रहा था,मगर पूरी
तरह से नौसिखिया लग रहा था।
मैंने कहा,“देखिए,मैं गिरवी नहीं रखती हूँ।आज नहीं तो कल दे देंगे।हर शाम आपके लिए
मुजरा करूंगी।”
अतिशय अनुनय-विनय के साथ वह कहने लगा,“अभी नहीं करोगी?”
“नहीं, माफ कीजिए।”
दरवाजा
खोलकर वह जाने ही वाला था कि अचानक पुलिस अंदर आ गई।पूछने लगी,“ यह आदमी कौन है?”
मैंने कहा,“नाम तो पता नहीं,मगर काफी देर से मुजरा सुन रहे हैं।”
पता नहीं
क्यों मेरे मुंह से यह अचानक निकल पड़ा।मेरे नारीत्व को स्पर्श किए बिना भी मेरे अंदर उसकी असहायता और अपरिपक्वता मातृत्व के भाव जागृत कर रहे थे।शायद मां की ममता वाली
प्रवृति के कारण मेरे मुंह से वैसा उत्तर
निकला।
मैं एक और रिकॉर्ड लगाया।पुलिसवाले पर्दे की ओट में खड़े थे।मैंने नाचना शुरू किया।जी भर मैं नाची।वे सोचने लगे थे,शायद इसे कोई अभिशाप मिला है जो मेरे घुंघरू की झंकार के बंद होते ही मिट जाएगा।मैं जीवन में सदैव नाची थी अन्य के
साथ संभोग-संसर्ग के लिए। मगर किसी के जीवन-मुक्ति के लिए पहली बार नाच रही थी।
उस आदमी की आँखों में आँसू थे।एक रिकॉर्ड पूरा होने पर दूसरा फिर से लगाकर मैं नाचने लगी।
कुछ समय के बाद पुलिस चली गई।पर्दा हटा कर मैंने देखा,वहां कोई
नहीं था गेट बंद कर मैं उसके सामने आ खड़ी हुई।मेरे पांव पकड़कर बहुत देर तक वह चुपचाप बैठा रहा।
मैंने पूछा,“कौन हो तुम?”
उसने अपनी सारी बात बता दी।वह किसी संभ्रांत घर का शिक्षित युवक था।उसके मां-बाप नहीं थे।संपत्ति के
लोभ में उनके परिवार
वालों ने उसे किसी
हत्याकांड में फँसाने की चाल चली
थी।वह घबराकर घर से भाग निकला था।
मेरे घर में
उसे आश्रय मिला।वह
मेरे पास ठहर गया।क्या करूं,कुछ सोच नहीं कर पा रही थी।वह भी नुकीले तीर से शिकार
हुई मरणासन्न हिरणी की तरह छटपटा रहा था।उसे देखकर मुझे दया आ रही थी।वह उसी गद्दे पर सो गया।देखते-देखते रात बीत गई।
सुबह हडबडाकर वह उठ गया।उसने पूछा,“मैं कहां हूं?”
कुछ समय तक वह मेरी तरफ देखता रहा और कहने लगा,“व्यर्थ आपको कष्ट दिया।यह घड़ी,चेन,अंगूठी रख लीजिए आपकी रात की भेंट-स्वरूप।”
यह कहकर एक ही सांस में वह कमरे से बाहर निकल गया।
अगले दिन
पुलिस ने उसे पकड़ लिया।जेल से उसने मुझे
पत्र लिखा,“बाईजी! मैं आपका नाम तो नहीं जानता।मेरा अपना इस दुनिया में कोई नहीं है।अगर संभव हो तो मेरी जमानत करवाने में सहयोग करें।जिंदगी भर आपका अहसान मानूंगा।”
उसे जमानत पर छुड्वा लाई। वह यहीं पर
रहा। मैं उससे प्यार करने लगी।मन ही मन मैंने उससे शादी कर ली।
कितनी रात मैंने उसे अपनी गोद में लिटाकर उसकी हिम्मत बंधाई। मैंने कहा,“ दोनों मिलकर इसका मुकाबला करेंगे।आज से आप दुनिया में अकेले नहीं हो।मेरी सारी
संपत्ति तुम्हारी है।”
एक दिन उसने पूछा,“मेरे लिए सब-कुछ कर सकोगी?”
मैंने हामी
भर दी।
वह कहने लगा,“यह धंधा छोड़ दो।”उस दिन मैंने गीत गाना और नाचना बंद कर दिया।
इधर मुकदमा
चलता रहा।बहुत धन चाहिए था। मैंने घर और गहने बेच दिए। बैंक की जमा पूंजी ख़त्म होती गई।मगर काउल,उस गर्व की अनुभूति तुम्हें किस भाषा में समझाऊं! जिसे तुम दिलो-जान से चाहते हो उसके लिए भिखारी बनने
में भी गौरव अनुभव होता है।
इस तरह कुछ दिन बीत गए।मेरा सारा पैसा खत्म हो गया।मगर हृदय अमीर हो चला।
इस शिशु ने जन्म लिया।उस समय हम दोनों को अभावों ने चारों ओर से घेर
लिया था।मैं उसे आँचल में ढककर रखती थी।समाज के आक्रमण,पड़ोसियों के व्यंग मैं अपने ऊपर ले लेती थी।उन्हें पता नहीं चलने देती थी।अपने पास छुपाकर
रखती थी।शहर से दूर एक बस्ती में जाकर रहने लगी।
यह अवस्था भी ज्यादा दिन नहीं चल पाई।नारी के जीवन का साधारण सुख सौभाग्य भी मेरे भाग्य को बर्दाश्त नहीं
हुआ।एक दिन अचानक
मुझ पर बिजली गिरी। इस वज्रपात से मेरी छोटी दुनिया टूटकर बिखर गई।फौजदारी मुकदमे का फैसला हुआ।शायद जज ने उन असुरों की बात को मान लिया।उन्हें दोषी करार दिया गया।इस हत्या में उनका अपराध साबित कर दिया। मैं उस दिन कचहरी में फैसला सुनने गई थी। मैं पीछे बैठी
हुई थी। कटघरे में वह खड़े थे।उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई।मैं उसी क्षण खड़ी-खड़ी धड़ाम से गिर पड़ी।
पीड़ा से मैं छटपटा उठी।उनसे आंखें मिलाने की कोशिश की।उनके पास जाकर मैंने कहा,“ दुखी मत होओ।अगर भगवान चाहेंगे तो फिर से इस केस पर विचार होगा”
उसने रोते-रोते हुए कहा,“यह सब झूठ है।”
पुलिस मुझे
पकड़कर बाहर ले गई।
वह सिर नीचे कर रोते रहे।लज्जावश किसी की ओर नहीं देख रहे थे।पास में
दूसरे पक्ष के लोग कह रहे थे,“वेश्या के घर में पड़ा रहता है,शराबी है, मौका पाकर दूसरों कि हत्या भी कर डालता है।अब बुद्धि ठिकाने आई।”
पुलिस उसे वैन में बिठाकर ले गई।वह मुझे देखते जा रहे थे।मेरे आंखों में जमे आंसुओं के कारण ठीक से दिखाई भी नहीं दे रहा था।
मेरा भगवान और उनके न्याय
पर बहुत विश्वास था।उस दिन रात में सोचने लगी,“ध्रुव और प्रल्हाद इतने बड़े भक्त होने पर भी क्या उन्हें कम कष्ट सहने पड़े?सत्य की प्रतिष्ठा जरूर होगी।मैं वकील के पास गई।उन्होंने कहा,“अपील करने
पर जरुर रिहा होंगे”
मेरे मन में
आशा जागी।मैं अगले दिन
जेल में उन्हें मिलने गई।पुलिस ने
मुझे रोक कर काफी
समय तक पूछताछ की,“ तुम उसकी क्या लगती हो?” मैंने कहा,“उनकी
पत्नी हूँ।”
यह सुनकर सभी ठहाका मार कर हंस पड़े।
आखिर वे मुझे जेलखाने में उनकी कोठारी के आगे ले गए।मैंने देखा,वह चारपाई
पर लेटे हुए थे।चादर खींचकर
उनके शरीर को स्पर्श किया तो वह निस्पंद थे।सीने की धड़कन रुक गई। सोचने लगी, यह धरती फट जाए,जैसे कभी सीता के लिए दो फाड़ हो गई थी। मैं और खड़ी नहीं रह सकी।लड़खड़ा कर नीचे गिर पड़ी।
उस दिन कचहरी से लौटते समय गाड़ी में जहर खाकर आत्म-हत्या कर ली
थी।जहर छुपाकर साथ
में ले गए थे।
मैं जेलखाने से बाहर आ गई।वह सामान्य जहर मुझे मिलना कठिन नहीं था,मगर लौटना पड़ा मुझे इस बच्चे की ममता के कारण।एक साल बाद फिर शुरू हो गया मुजरा।इस बच्चे के भविष्य को बचाने के लिए फिर से इस नर्क में आ गई।
बच्चे को
गोद में लेकर बाईजी बिछौने के पास खड़ी थी।काउल ने बच्चे को अपनी गोद
में लिया।सुंदर,सुकुमार
बच्चा देखकर कहने लगे,“बाईजी.......”
बात बीच में काटकर बाईजी ने कहा, “माफ करना काउल! यह नाम मुझे पसंद नहीं।मुझे आप नमिता कह सकते हो।कम से कम आप तो इस नाम से बुलाएं।”
काउल ने हंसकर कहा,“नमिता! इस माहौल में बच्चे की जिंदगी की खराब हो जाएगी।कोई आदर्श नहीं रहेगा।आगे जाकर वह तुम्हारा
सम्मान नहीं करेगा।इसके जीवन का प्रभात ही टूट जाएगा।इसकी जिंदगी औरों
के उपहास में मुरझा
जाएगी,जिसे चाहा
था उसके लिए इतना त्याग किया।इसके लिए भी तो कुछ करना होगा?”
नमिता ने
कहा,“मैं नहीं जानती,आप कभी पिता भी बने हैं या नहीं।मगर मां का कोई भी त्याग अपने शिशु के लिए यथेष्ट नहीं है।”
काउल ने कहा,“विवाहित नहीं हूं।होने की भी आशा भी नहीं है।मगर मेरे अंदर पिता बनने की
इच्छा है।इस बच्चे का दायित्व मुझे दो।मैं उसके पढ़ाई-लिखाई और रहने की व्यवस्था कर दूंगा।”
नमिता रोने लगी।
*******
काउल ने बच्चों की पढ़ाई-लिखाई के लिए ट्रस्ट
खोला।संग्रहीत रुपयों पर मिलने वाले ब्याज से अनेक असहाय बच्चों की परवरिश होने लगी।उन्हें हॉस्टल में रखा जाता था।
नमिता की बेटी इसी ट्रस्ट के जरिए हॉस्टल में रहकर एक
कान्वेंट में पढ़ने लगी।बीच-बीच काउल जब शहर में आते थे, बच्चों को देखने के लिए स्कूल जरुर जाते थे।कभी-कभी नमिता भी उन्हें वहां मिल जाती थी।
नमिता हंसते हुए काउल से कहती,“तुम मेरे भग्न-देवता हो।”
काउल नमिता से कहते,“तुम मेरी नष्ट उर्वशी हो।”
आजकल जब काउल नमिता के घर जाते हैं,नमिता साजो-सामान उतार देती है,मुजरा नहीं करती है।काउल वहाँ शराबी नहीं
छूते हैं।कहते हैं,“मैं दुनिया में सबकुछ सहन कर सकता हूं, मगर मातृत्व की उपेक्षा कभी नहीं कर सकता।”
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