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इस विराट प्रासाद के प्रांगण में सुबह-सुबह आकाश की लालिमा की ओर देख रही थी मनीषा।आकाश की यह निर्विच्छिन्न कोमलता।सिंफोनी की तरह आकाश।सी मधुर संगीत से  झंकृत यह प्रकृति।

क्यों? कल शाम को काउल  की आँखें इसी तरह रंगीन होती जा रही थी आंसुओं के पहले स्पर्श की तरह।काउल, तुमने त्याग,उपभोग करना सीखा है,मगर अधिकार जताना नहीं।हरपल मैं प्रतीक्षा करती रही कि तुम कहोगे,मनीषा,मेरे पास आओ।”
केवल इन तीन शब्दों के लिए कितनी रातें मैंने जागते हुए काटी।कितने विनीत निवेदन किए। एक दिन भी मेरा स्पर्श नहीं किया।कभी हल्का-सा इशारा नहीं किया।तुम्हारा जरा-सा इशारा पाकर मैं अपना सारा विश्व तुम्हारी चरणों में लुटा देती।तुम्हारे हृदय में खो जाती। कितने प्रसंग गढ़े।कितने लावे दिखाएं।कभी जाहिर नहीं होने दिया तुमने अपना अधिकार।   शरीर की चाह रही,मन की।केवल दूर ही रहे किसी मधुर सपने की तरह।मगर क्यों?  क्या बाधा थी?

शायद बीमारी।मगर तुम तो एकमात्र ऐसे व्यक्ति हो,जिसने अपनी सारी संपदा लूटा दी।  अपनी एकाग्रता,निष्ठा,जी-जान से मेहनत करके।इस व्याधि के लिए तुम नफरत करोगे,मुझे  नहीं लगता है।रात-दिन उस बिस्तर के पास मैंने देखा मन के बाहर और भीतर देखा है।

एक बा जानते हो?जीने की अगर तमन्ना थी तो केवल तुम्हारे लिए।आशा थी बस तुम्हें पाने के लिए।मैंने भगवान को पुकारा सिर्फ तुम्हारे खातिर,भगवान तुम्हारी कोशिश सफल करें ।

तुमने एक बार भी निमंत्रण नहीं दिया मुझे अपने पास आने के लिए।मेरे शरीर के सस्ते उपभोग की भी इच्छा नहीं की।मैं तो उसके के लिए प्रस्तुत थी।

मैंने सोचा अपने विवाह के बात मैं खुद उठाऊंगी।उसके लिए कुछ साधारण संकेत तो दोगे।  देसाई को लाकर तुम्हारे आगे हाजिर किया। फिर भी तुम मौन रहे।क्या अपना अहंकार दिखाना चाहते थे? मैं सिर्फ उसके लिए एक आयुध-मात्र थी! मगर अब भी मेरा मन इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं है।

फिर ये आंखे उदास क्यों है, तुम्हारी दृष्टि विचलित क्यों है ?

 मनीषा ने उसी पल काउल के होटल में जाने का निश्चय किया।निर्लज्ज होकर कहूँगी, काउल, मैं तुम्हें चाहती हूं- तुम्हारी घृणा और उपेक्षा के बावजूद भी।अपने कदमों में मुझे जरा-सी जगह दे दो।मैं कुछ सुनना नहीं चाहती। मेरी कोई शर्त नहीं है।मेरे इस पिंड में जिसने प्राणों का संचार किया हैं,वह केवल इसका अधिकारी है।”

सूरज त तक आकाश में ऊपर नहीं चढ़ा था।चुपचाप मनीषा बाहर निकल पड़ी।रास्ते से टॅक्सी लेकर होटल पहुंची।कमरे का दरवाजा खटखटाया,मगर कोई जवाब नहीं मिला।उसने धक्का देकर दरवाजा खोला। कोठरी एकदम खाली थी।मन में डर-सा लगा।एक अनजान आशंका की सिहरन मनीषा के शरीर में दौड़ गई।

काउल होटल छोड़कर जा चुके थे।बहुत समय तक उस सूने कमरे में वह इधर-उधर भटकती  रही।आखिरकर वह होटल से बाहर निकल आई।
कोई भी काउल का अता-पता नहीं बता पाया।  
****
काउल को ढूंढने के लिए मनीषा कलकत्ता गई।वहाँ भी उसकी कोई खबर नहीं मिली।चेन्नई  गई।महाराष्ट्र में उनके गांव गई।कहीं कोई पता नहीं चला।पुलिस में इत्तला की।जितने भी काउल के मित्र थे,उनसे मुलाक़ात की।दुनिया के कोने-कोने में पत्र लिखे।मगर कुछ भी पता नहीं चला। 

अपने अंतिम समय तक काउल की प्रतीक्षा करती रही मनीषा।

काउल के साथ जिस कैंसर अस्पताल में सबसे पहले भेंट हुई थी,वहाँ अब मनीषा सेविका थी।   काउल की प्रतीक्षा के लिए वह अपना पाथेय संग्रह कर रही थी।सेवा करती थी कैंसर के मरीजों की।एक छोटे-से कमरे में काउल का बड़ा फोटोग्राफ लगाकर रखी थी वह।उस फोटो पर हर-रोज मनीषा पुष्पांजलि अर्पित करती थी।जो स्मृतियाँ विगत वर्ष से काउल के साथ जुड़ी हुई थी,उन्हें मन ही मन तरोताजा कर काउल का सानिध्य पाती थी।जितने भी वार्तालाप हुए थे,उन सबका विस्तृत लेखा-जोखा तैयार किया था उसने।उसे वह रोज पढ़ती रहती थी  बाइबल, गीता की तरह।उसके जीवन का एकमात्र उद्देश्य था,एक पल के लिए ही सही काउल के दर्शन करने का।
कहा जाता है कि स्वामी निगमानंद ने अपनी मृत पत्नी को योग-बल से जीवित कर दिया था।मगर काउल तो जिंदा है।वह योग-साधना भी तो मनीषा के बस की बात नहीं है।

काउल मुझे इतना चाहते थे।मेरा जिंदा रहना ही पर्याप्त था।तुम्हारे साथ अवश्य मुलाक़ात  होगी काउल! किसी न किसी दिन मैं तुम्हें अपना बनाकर ही रहूंगी।

अब मनीषा बीमार है।पूछने पर कहती है,“काउल मेरा नारीत्व नहीं चाहते थे। मेरी इस बीमार काया को देखकर आकर्षित हुए थे।शायद मुझे इसी हालत में उनका संस्पर्श प्राप्त हो जाए।”

अचानक एक दिन मनीषा ने खुद को दुल्हन के वेश में सजाया।जितने पैसे उसके पास थे, उनके गहने खरीद लिए।काउल की दी हुई हरी साड़ी पहन ली। जुडे में फूल लगाए।पैरों में घुँघरू बांधे।ललाट पर रंगीन बिंदी और मांग में सिंदूर भर लिया।

परिजनों को आमंत्रित किया।वह बिस्तर पर सोई हुई थी।उसे तेज बुखार था।शरीर दुर्बल हो गया था।शहनाई वादक भी आए।रात भर शहनाई बजती रही।मनीषा ने काउल के फोटोग्राफ खूब सजाया।काउल के माथे पर चंदन की बिंदियों का मुकुट बनाया।गले में फूलों का हार पहनाया। परिजनों को कहने लगी,“आज मेरे विवाह का शुभ-लग्न है।आप लोग सादर आमंत्रित है।”
काउल कहते थे,मनीषा,भाग्य नाम की भी कोई चीज होती है।उसीसे असंभव संभव हो जाता है।मगर मेरा ऐसा क्या भाग्य है,जिससे संभव भी असंभव हो गया।जिसने आश्रित को बेसहारा कर दिया।
उस रात के अंतिम प्रहर में मनीषा ने प्राण त्याग दिए।उसकी डायरी में एक खत लिखा हुआ था काउल के नाम।

मेरे प्राणों के काउल,

 प्रतीक्षा करते-करते मेरा शरीर अवश हो गया हैं! अब मेरे काबू में नहीं है।बहुत इच्छा थी कि एक पल के लिए ही सही तुम्हें निबिड भाव से अपनी गोद में रख पाती।मगर तुम्हारे उस भाग्य ने ऐसा नहीं होने दिया।यह दंड मुझे क्यों दिया?तुम क्यों निर्वामें चले गए? तुम  भोले-भाले हो।

काउल, सच में आज बहुत जी कर रहा है मेरे इन आखिरी क्षणों में तुम्हें देखने के लिए।  तुम्हारी वे नशीली आंखें,उदास होठ,मासूम चेहरा अपने हृदय में एक मर्तबा सँजो लेना चाहती थी।भले,एक पल के लिए ही सही। तने देवी-देवता है,क्या कोई भी थोड़ी-सी सहायता नहीं करेगा? मेरी आखिरी बात सुन लो,काउल।मैं विदा ले रही हूं।विदा की घड़ी नजदीक है।मगर मेरी बात अवश्य मानोगे,मुझे वचन दो।मेरे मृत शरीर की सौगंध।इस पत्र को पढ़ने के बाद तुम शीघ्र लौट आना मेरे पास।दूर आकाश के दिग्वलय के पास जहां से नीला-हल्का प्रकाश दिखाई देता है- वहाँ पर।कितनी बार तुमने मुझे वह जगह दिखाई है।तुम्हें वह जगह याद है? 
मैं वहाँ पर तुम्हारी प्रतीक्षा करूंगी।

आज मेरी आँखों के सामने हर पल की घटनाएँ गुजर रही है।जिस दिन तुमने मुझे पहली बार उठाया था सड़क से, याद है? सुलाया था अपनी गोद में, याद है? गाड़ी में बहुत पीड़ा हो रही थी, मगर तुम नहीं जान पाओगे कि तुम्हारा वह संस्पर्श मुझे कितनी शांति दे रहा था!
उठने तक की भी मैंने कोशिश नहीं की।लगता था जैसे मैं अपनी मां की गोद में निश्चिंता से सोई हुई हूं।उस दिन मन में विश्वास पैदा हुआ।जैसे मैं तुम्हारे पास आजीवन रहूँगी,तुम्हारी गोद में।याद है,यूरिक की होटल में जब तुम्हारी तबियत खराब हुई थी,मैं तुम्हारे पाँवों के पास सोई हुई थी, तुम्हारे पाँवों में मेरा चेहरा छुपाकर।तुम सो रहे थे।रात- दिन मैं तुम्हें देखती रही।सोच रही थी,यही तो मेरा है। और जब तुम पूरे मेरे हो जाओगे तो मैं सब-कुछ तुम्हें बता देती,प्रत्येक घटना,प्रत्येक विक्षिप्त चिंता।तुमने यह सामान्य मौका भी मुझे नहीं दिया।

आंखों के आगे नाच उठा सड़क का वह दृश्य।धीर,शांत,हताश शिशु की तरह खड़े थे,मगर क्यों? क्यों तुमने अपना अधिकार नहीं जताया?क्यों मेरी विनती स्वीकार नहीं की?
कितनी जोर-जबरदस्ती कर रहे थे देसाई,उनकी बहन,अंकल,आंटी सभी मेरे विवाह के लिए।
बाद में कहने लगे,विवाह भले ही मत करो,मगर यही रहो हमारे घर में।मगर काउल मेरी आंखों के आगे केवल दिख रहा था तुम्हारा निरीह त्यागी चेहरा,तुम्हारी भीगी पलकें।उस दिन तुम्हारे कमरे में बिस्तर पर बैठकर दीवारों को सहलाती रही।ऐसा लगा जैसे मैं तुम्हारे शरीर की सुगंध को सूंघ रही हूँ।उस दिन मैं डर गई, शायद तुम्हें और नहीं पा सकूंगी।वह भय आज सत्य में बदल गया। 

 मैं तुम्हें इतना प्यार करती हूँ काउल, दुनिया में कभी तुम्हें इतना प्यार नहीं मिलेगा और कोई इतना प्यार कर भी नहीं पाएगा।लौट आओ काउल; अभी भी आशा लगाए रखी हूँ।तुम जरूर आओगे।
कष्ट हो रहा है और ज्यादा लिखने के लिए हाथ भी नहीं चल रहा है।मगर क्या लग रहा है,जानते हो-यह खत लिखने तक ही मैं जिंदा हूँ।मैं तुम्हें अपने पास अनुभव कर रही हूँ। जैसे तुम्हारी साँसे भी मेरे चेहरे पर लग रही है।जिस समय यह पत्र लिखना बंद हो जाएगा-तुम फिर मुझसे दूर चले जाओगे- बहुत दूर।जो मैं इस जीवन में नहीं पा सकी,मरने के बाद तुमसे उसे पाने की तमन्ना बहुत तीव्र हो गई है।मेरा आलिंगन स्वीकार करो,निबिड,घनिष्ठ,एकांत आलिंगन।  


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