2.अमावस्या और चाँद: एक मुग्ध अनुभव:-


2.अमावस्या और चाँद: एक मुग्ध अनुभव:-
अमावस्या एक ऐसी तिथि है,उस रात को चंद्रमा नहीं दिखता है।यह चंद्र का भाग्य है।सौर-मंडल में सूर्य,चंद्र,तारे,ग्रह,नक्षत्र सभी विज्ञान-सम्मत गतिपथ पर चक्कर लगाते हैं,अमावस्या के दिन वे अपने पथ पर स्थिर हो जाते हैं इसलिए दुनिया के लोग उसे देख नहीं पाते। इतनी बलवती युक्ति का भी मनुष्य के आवेग और भाव-प्रवणता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा।सूर्य पृथ्वी के चारों तरफ घूर्णन करता है या पृथ्वी सूर्य के चारों तरफ चक्कर लगाती है,यह तथ्य हजारों साल पहले प्रकाश में आ चुका हैं।अर्ध शतक पूर्व बैरिस्टर गोविंद दास ने  अमावस्या तिथि में जो चंद्र-दर्शन करवाया था,वह आज तक ओडिया  पाठकों को आह्लादित करता है,पुलकित करता है।उस अमावस्या के चाँद की शीतल चांदनी में पाठकों को वही अनिर्वचनीय,अतुलनीय विमुग्ध अनुभूति होती है।  
 सन 1964 दिसंबर महीने की प्रथम अमावस्या तिथि की रात जो चाँद उगा था, आज उसे  पचास साल से ज्यादा हो रहे हैं।तैंतीस संस्करणों में प्रकाशित इस उपन्यास ने ओड़िया साहित्य में एक सर्वकालीन रिकॉर्ड स्थापित किया हैं।जबकि साठ,सत्तर,अस्सी दशक के प्रकाशन संबन्धित अनेक असुविधा थी,ओड़िशा की साक्षरता दर और पुस्तक प्रचार-प्रसार नेटवर्क इत्यादि पर भी विचार करना होगा।
उपन्यासकार ने उपन्यास  का नामकरण अमावस्या और चाँद जैसे दो परस्पर विरोधी शब्दों से किया है,उसकी आत्मा और उसके पात्रों की जीवन-शैली के अनुरूप कभी कुत्सित,घृण्य,कदाकार दृश्य प्रस्तुत होते हैं तो  कभी ज्योत्सना-विधौत-चांदनी रात की तरह शीतल,कोमल,मधुर,स्वप्नमय,अविश्वसनीय आकर्षक दृश्य।
काउल इस उपन्यास का केंद्रीय चरित्र है।वह फिर इसका नायक भी है।ऐसे पात्र की परिकल्पना करने की पृष्ठभूमि में उपन्यासकार गोविंद दास ने हरमन हेस के प्रसिद्ध उपन्यास सिद्धार्थ के प्रभाव को स्वीकार किया हैं।फिर उनका कहना हैं कि उन्होंने कोलकाता के पंच-सितारा होटल ग्रेट ईस्टर्न में अमावस्या का चाँद उपन्यास की रचना की। वहाँ पर माटी का मनुष्य का बरजू जैसा पात्र के निर्माण की कोई संभावना नहीं थी।
यह बात सत्य है।उपन्यास का सारा वर्णन कोलकाता का है।पार्क स्ट्रीट,रेस-कोर्स,गंगा का तट,हावड़ा स्टेशन,चौरंगी,रेड लाइट एरिया,बाई  जी का कोठा,ट्राम लाइन,चर्च के दृश्यों में पचास साल पुराना कोलकाता महानगर साफ नजर आता है।
पचास साल पहले के ओडिया उपन्यास की भाषा,रचना-शैली और संरचना की दृष्टि से अमावस्या का चाँद पूरी तरह से अलग है।केवल अलग ही नहीं,वरन पूरी तरह से अभिनव है।उपन्यास के प्रथम परिच्छेद में पाप-पुण्य की एक विस्तृत और सूक्ष्म व्याख्या है,इसलिए उपन्यासकर ने पाटलिपुत्र के राजमहल और पात्रों के लिए शिष्य श्वेतांक और विशाल देव के प्रसंग का सहारा लिया है।इस प्रसंग की मंदिर की मुखशाला की तरह आवश्यकता थी।अमावस्या का चांद उपन्यास में जितने पात्रों को पाठकों का सामना करना पड़ा है,वे सब प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से काउल से संपृक्त है।फिर वही काल पाप-पुण्य के दोराहे पर खड़ा होकर एकाकी निसंग मनुष्य प्रतीत होने लगता है।इस समाज द्वारा तैयार की गई पाप-पुण्य की सीमा-रेखा के भीतर काउल उलझ जाता है और उसके पक्ष-विपक्ष में अपना मंतव्य देने के अधिकार खो देता है।
वास्तव में उपन्यास का अंत ही इसके प्रारंभिक अध्याय की कहानी है।उपन्यास समाप्त होते-होते काउल अदृश्य हो जाता है।अंत में मरणासन्न मनीषा काउल का इंतजार करते-करते अनुरागी मन से उसके फोटो का आलिंगन करती है और कामना करती है कि आखिरकर एक बार काउल उसके निर्जन कमरे में लौट आए,जहां मनीषा की पवित्र आत्मा मृदु प्रेम के हिल्लोल शैली के धूप से सुरभि परिवेश में निर्निमेष नेत्रों से अनंत काल के लिए उसकी प्रतीक्षा में है।

यहां से पुस्तक प्रारंभ होती है,“काउल,तुम्हें न किसी प्रकार की पीड़ा है और न ही किसी प्रकार का पश्चाताप।  भाग्य के खिलाफ न तुम्हारा कोई विरोध है और न ही आत्मसमर्पण।विजय की   न कोई लालसा है और नहीं पराजेय का भय।तुम एक निर्विकार,निर्विछिन्न  पुरुष हो।तुम्हारे जीवन में हजारों आंधी-तूफान आने के बाद भी तुम बीथोवन की चौथी सिंफोनी की तरह निश्चल,शांत हो।....”  
काउल के लापता होने की इस प्रारम्भिक और अंतिम परिस्थिति का  मध्यवर्ती इलाका काउल की चारण भूमि हैं।इसके भीतर पाठक देखते हैं,काउल के विलासमय जीवनचर्या की संक्षिप्त रूपरेखा।और बीच में देखते हैं,काउल के पूर्वजों की राजशाही जीवनशैली,उनकी प्राचुर्य धन-संपदा और उनके मनमौजी विलासी जीवन से अवक्षय होते जीर्ण-स्वरूप को।
उपन्यास पढ़ते समय ऐसा लगता है,गोविंद दास काउल को एक चरित्र भाव से नहीं,वरन् भिन्न-भिन्न प्रकार के कसौटी पत्थरों से घिसकर एक मुग्ध चेतना के उज्जवल अनुभवों की संरचना करते जा रहे हैं। इसलिए जो पाठक काउल को सुरा-सुंदरी,जुआ,रेस-कोर्स,झूठ,छल-कपट, कालाबाजारी की अंधी गली के भीतर देखते हैं,वही काउल अचानक पाठकों के सामने असीम त्याग,स्नेह,श्रद्धा,नीरव प्रेम और निस्वार्थ तपस्या जैसे सद्गुणों के साथ प्रकट होते हैं।
काउल की धुंधली छबि उसके व्यक्तित्त्व के कारण अविश्वसनीय हो जाती है,पाठकों के लिए अचरज की बात है।अंतिम फैसला नहीं ले पाने की असहायता के कारण पाठक छटपटाने लगता है,उसका स्वरूप एक बड़े प्रश्न में बदल जाता है।
उपन्यास की कहानी वैश्या नीरा से शुरू होती है।उपभोग की समस्त सामग्रियों से परिपूर्ण इस नीरा के शरीर का नक्शा जो कई पुरुषों को आकर्षित करने का सामर्थ्य रखता है, वहाँ यह स्वाभाविक है कि काउल के लिए वह रात्रि की रजनीगंधा बन सकती है।नीरा के साथ रात बिताकर उसे अपना प्राप्य देकर लौटाने के बाद उसके सानिध्य को रात के बुरे सपने की तरह वह नहीं भूल पाता है।काउल की सूक्ष्म अन्वेषण दृष्टि से नीरा को मुक्ति नहीं मिल पाती है।
नीरा से काउल को उसके किशोरावस्था के स्वपनभंग की कहानी पता चलती है। सुना है अर्द्धनिर्मित शरीर के प्रेम के प्रथम कदंब खिलने के समय का विषादपूर्ण नैराश्य। काउल ने इस लावण्यमयी रूप की छटा में बिजली की चमक पैदा करने नीरा में भाड़े के घर में रहने वाले एक गरीब बंगाली परिवार की लड़की निर्मला का अनुसंधान किया।
निर्मला से नीरा। बहुत ही लंबी कहानी। निर्मला टाइपिस्ट बनती है,शिक्षिका बनती है और बीच में सेल्स गर्ल के रूप में काम करती है। मगर कितनी मिथ्या और छलावे वाली ये नौकरियाँ थी!सभी को नीरा का आकर्षक यौवन चाहिए। मनमोहक शरीर। नीरा खुद इस शरीर का सामर्थ्य देखकर विस्मित हो जाती है। इस शरीर के बदले नीरा प्रतिष्ठा,धन और भौतिक शरीर के सारे सुख हासिल कर लेती है। मगर अपने मातापिता को सामाजिक सम्मान और स्वीकृति नहीं दे पाती है।
एक वैश्या के माता-पिता होने के कारण उनके दुख,यंत्रणा,नैराश्य और हीन-भावना की कोई सीमा नहीं होती है।
काउल ने नीरा के साथ पांच-सितारा होटल में रात भले ही बिताई हो,मगर वह समाज में नीरा को फिर से प्रतिष्ठा दिलाते हैं। काउल की आर्थिक सहायता से नीरा गरीब और वैश्याओं के बच्चों के लिए एक आदर्श विद्यालय खोलती है।बुढ़ापे में नीरा के माता-पिता को नूतन समाज में एक स्निग्ध सूर्योदय दिखाई देता है।और उन्हें आत्म-सम्मान के साथ जीवन जीने का अधिकार मिल जाता है।       
काउल के विडंबित किशोर जीवन की कहानी इस उपन्यास का दूसरा अध्याय है।मुंबई की सड़कों और फुटपाथ पर अखबार बेचकर जीवन-यापन करने वाला काउल आधुनिक व्यवसाय के कौशल के गूढ-रहस्य को सीख लेता है।यहां पर सलीम के सहयोग से जीवन सीखते हुए काउल का परिचय एक वैश्यालय की माया से हो जाता है। नर्क का जीवन जी रही इस महिला की प्रत्यक्ष सहायता करने के लिए काउल स्कूल और कॉलेज की पढ़ाई पूरी करता है।  यहीं पर वह एक्सपोर्ट-इंपोर्ट के व्यवसाय की जटिल गणित भी सीखता है।यहीं पर काउल  शेयर मार्केट,स्टॉक एक्सचेंज के सपने बुनना शुरू करता है।असीमित धन उपार्जन का सरल रास्ता और संक्षिप्त कर्म-सूची के रूप में वह से दिखता है।रास्ते के फुटपाथ से काउल ऊपर उठकर एक शीर्षस्थ उद्योगपति बन जाता है।
उपन्यास के परवर्ती तीसरे अध्याय में पाठकों का साक्षात्कार रेस-कोर्स के जुए, नशा में मदमस्त और उद्धत काउल से होता है।रेस-कोर्स में बाजी लगाकर बारंबार पराजित होने वाला काउल स्थविर और स्थितप्रज्ञ बना रहता है।इस जुए के नशे में सामायिक सहयोगी सुंदरी जैनी के कटाक्ष और उत्तेजित मंतव्य भी काउल को प्रभावित नहीं कर पाते।भयंकर आर्थिक क्षति झेलने के बाद जब काउल को विजय प्राप्ति का सुनिश्चित अवसर मिलता है।उस समय रेसकोर्स की बाजी लगाकर जीतने के सुनिश्चित अवसर का प्रत्याख्यान कर देता है।रेस-कोर्स के मैदान के एक परित्यक्त कोने में बड़ी यंत्रणा से छटपटाते एक असहाय बूढ़े की आर्त  पुकार सुनकर वह गणित के सारे हिसाब-किताब को भूल जाता है।जब घोडे की बुकिंग काउल  के पास आती है तो वह रोग-ग्रस्त बूढ़े की चिकित्सा के लिए चला जाता है।वह घोड़ा रेस कोर्स में विजयी हो जाता है।काउल निश्चिंत अर्थ प्राप्ति से वंचित होकर बहुत सारे पैसे हार कर भी सेवाभाव,जीवन-रक्षा और मनुष्यता का अतुलनीय अविश्वसनीय उदाहरण प्रस्तुत  करता है।
अगले अध्याय में काउल पागल होकर सुंदरी रूपसी नृत्यांगना बाई जी के पास जाता है।बाई  जी के साथ शारीरिक संबंध बनाने के लिए लालायित काउल एक कामासक्त दुर्बल पुरुष के रूप में सामने आता है,मगर बहुत कम समय के लिए।बाईजी एक विवाहिता विधवा और  एक बच्ची की मां है-यह बात पता चलने पर काउल का व्यक्तित्व अचानक रूपांतरित हो जाता है।नारीत्व और मातृत्व दोनों के प्रति सम्मान और कर्तव्य की प्रशंसनीय पदक्षेप काउल  के व्यक्तित्व की उज्जवल दिशा को पाठकों के समक्ष रखता है।
इसी तरह फ़्लैश खेल में जीतने-हारने के दौरान काउल निर्वाचित होकर शहर के नगरपालिका  का चेयरमैन बन जाता है।सारे शहर वाले काउल के व्यक्तित्व का आकलन कर उसे बड़ी-बड़ी उच्च पदवियों पर आसीन करते हैं,जिसे काउल कपटपूर्ण और मिथ्या समझता है। उसके लिए  यह सिंहासन कांटो से भरा होता है।अपनी कलंकित जीवनधारा के सामने वह अत्यंत ही मलिन और क्षुद्र महसूस करता है।तुरंत ही जनता के सामने वह अपने मुखौटे को खोल देता है।निर्वाचन की जीत,शासन का प्रलोभन और शक्ति का प्रबल आकर्षण उसे क्षणिक और तुच्छ प्रतीत होते हैं।पीछे रह जाते है उद्धत अंहकार,शासन के प्रति कर्तव्य, शक्ति का लोभ  विजयोल्लास और जनता की जय-जयकार ध्वनि।
बहुत दृष्टिकोण से उपन्यास का अंतिम अध्याय असाधारण और अनन्य है।यहां काउल से मुलाकात करते समय मन संवेदना से आर्द्र हो जाता है।त्याग,तितिक्षा,सेवा,मनुष्यता,प्रेम विश्वास और अभिमान सभी भीगकर काउल के प्रेम की विफलता पाठकों को उसकी तरफ अहैतुक भा से आकर्षित करते हैं।एक जीवन को निश्चित मृत्यु के द्वार से लौटाकर लाने का गौरव काउल को महिमामंडित करता है,वही प्रेम की चरम विफलता पाठकों के मन में  दया मिश्रित भाव पैदा करती है।
कैंसर पीड़ित मनीषा की चिकित्सा के लिए काउल उसे चेन्नई से स्विट्ज़रलैंड के ड्यूरीक शहर  ले जाता है।मृत्यु का शीतल स्पर्श अनुभव करने वाली मनीषा ऑपरेशन के बाद पुनर्जीवन प्राप्त करती है,केवल काउल की विपुल आर्थिक सहायता और संवेदना के कारण।चिकित्साधीन कैंसर पीड़ित मनीषा के प्रेम में पड़कर असहाय काउल के मन में प्रचुर प्रत्याशा जाग उठती है।इधर नारी जीवन का सर्वस्व निशर्त काउल के पांवों तले समर्पण करने के लिए  व्याकुल और व्यथित मनीषा के भीतर सलिता भभकने लगती है।मगर मनीषा भारतीय नारी है।  लज्जा,संकोच,संभ्रमता और विनम्रता की प्रतिमूर्ति है वह।काउल के प्रति निशर्त प्रेम की सांद्रता प्रगाढ़ होने पर वह चुपचाप काउल के सामान्य इशारे का इंतजार करती है।
ईर्ष्या को छोड़ देने से प्रेम संभव नहीं है।
इसलिए मनीषा काउल के हृदय में उसके प्रति आकर्षण को परखने के लिए देसाई के साथ पूर्व संबंध और उसके साथ विवाह होने का एक कृत्रिम वातावरण पैदा करती है।मगर काउल  नहीं समझ पाता है।जीवन का सर्वस्व त्याग कर नि:स्व काउल अंत में मनीषा के मिथ्या-  प्रेम के खातिर अतुलनीय त्याग दिखाकर शहर से गायब हो जाता है।काउल के इस प्रकार के आचरण से मर्माहत होकर मनीषा अंत में मृत्यु की गोद में समा जाती है।मगर वह एक पत्र लिखकर करुण निवेदन करती है काउल को उसकी कोठरी में पर्दापण करने हेतु अनंत ऊष्म आमंत्रण देकर। यहीं पर उपन्यास अमावस्या का चांद समाप्त होता है।इस उपन्यास का  अंतिम बिन्दु है- हर रात आकाश में चंद्रमा रहता है।केवल अमावस्या को उसे नहीं देखा जा सकता है।मगर बैरिस्टर गोविंददास केवल ओड़िया पाठकों के लिए यह दुर्लभ अवसर प्रदान किया है।आप भी उपन्यास को पढ़कर अमावस्या की घनी अंधेरी रात में चंद्र-दर्शन का स्वर्गिक आनंद और शाश्वत अनुभूति प्राप्त कर सकते हैं।
-डॉ॰ प्रसन्न कुमार बराल,
संपादक-गोधूलि लग्न

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