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बिखरे केश,मधुर अधर,नम्र नेत्र और सुप्त नारी।श्वेत वस्त्र से ढका हुआ समूचा देह।  निस्तब्ध रात्रि को ठंडी हवा इस निश्चल देह के वस्त्र को थोड़ा हिलाकर मृदु सिहरन पैदा कर रही  थी।वातायन को भेदकर आ रही चांदनी उस नारी देह में प्राणों का संचार  कर रही थी।  इस झंकारमयी चांदनी रात में काउल पलक चुपचाप उसे निहार रहे थे।अपेक्षित दैहिक उभार ही तो नारी का दूसरा नाम है।इसमें नूतनता क्या होगी?एशिय,यूरोशियन सभी को
नजदीक से देखा है,उनका उपभोग किया है,क्या फर्क है?कुछ तो है,शारीरिक सुडौलता के अनुसार विविधता अवश्यंभावी है।

स्टेशन पर स्टेशन पार होते जा रहे थे,रेलगाड़ी की गति बढ़ती जा रही थी।मनुष्य में एक तरह की विशेष चीज होती है,जिसका नाम होता है-“लिबिडो”।यह शरीर में हलचल पैदा करती  है।जब इसकी गति तेज होती है तो मनुष्य बहुत चंचल हो जाता है।यह चंचलता जब अधिक देर तक रहती है तो मनुष्य का साधारण मन-बुद्धि उसके आगे आत्मसमर्पण कर देती हैं।  इसके वशीभूत होकर वह त्याग देता है अपना राज्य,अपना सुख यहाँ तक कि अपना जीवन भी।मनोवैज्ञानिक इसे प्रेम कहते हैं।

विभिन्न परिस्थितियों की सीमा के भीतर शारीरिक मिलन के गंभीर प्रयास का नाम प्रेम है।मन भी तो शरीर का अंश है! मन तो केवल शारीरक जरूरतों को बल देता है,उन्हें साहचर्य प्रदान करता है।मगर इसकी उत्पत्ति-विलय शरीर में ही है।जो अन्य प्राणियों के लिए सामयिक मामूली-सी जीवन प्रक्रिया है,मनुष्य उस पर एक आवरण चढ़ा देता है।उसे एक नाम दे देता है प्रेम।यह तत्ववेत्ताओं का मत है।

इस तर्क का मन-ही-मन काउल विश्लेषण कर रहे थे।अन्य असंख्य नारियों की तरह यह भी एक साधारण नारी है।खासियत बस इतनी है-रेल की खिड़की से उसके चेहरे पर अंधेरे-उजाले  के आंख-मिचोली का खेल उसके चेहरे पर चंचलता ला रहा है।बस,सिर्फ यही फर्क है।नाइट क्लब में ग्लास ब्रेकर स्टेज पर नर्तकी के देह पर बीच-बीच में रोशनी बीच-बीच में अंधेरे की तरह।अंधेरा-उजाले का क्रमागत खेल और तेज संगीत दर्शकों के रोम-रोम में सिहरन पैदा कर देता है।इसी तरह आज भी रेल का संगीत  नारी के मुख सौंदर्य पर धूप-छांव का नृत्य कर रहा हैं।


जनसमूह विश्वसनीय,शांतिपूर्ण होता है।उसका मुकाबला करने में कोई संदेह या तकलीफ नहीं होती है।अपने परिधान,दृष्टिकोण,कर्म में तुम पूरी तरह स्वतंत्र हो,निश्चिंत हो।मगर किसी  व्यक्ति विशेष के समक्ष उपस्थित हो तो स्वयं को मर्यादित रखो।संयमित विचार रखने होंगे।  यह हमेशा पैमाना होता है कि जो आदमी हमारे सामने बैठा है,उसकी प्रतिक्रिया पर ध्यान मत दो।उसके साथ तालमेल बैठाना पड़ेगा,चाहे कुछ समय के लिए ही।

 काउल इसलिए जनसमुदाय को पसंद करता है।जब तक काउल प्लेटफार्म पर थे,प्रसन्न थे।
असंख्य लोगों के बीच अथवा जब तक उस कंपार्टमेंट में अन्य लोग उपस्थित थे।धीरे-धीरे  वहां से पैसेंजर उतरते गए।
आधी रात को आख़री पैसेंजर भी उस डिब्बे से उतरकर चला गया।काउल और वह नारी डिब्बे में अकेले रह गए।काउल विचलित अनुभव कर रहे थे।शायद वह नारी भी ऐसा ही महसूस कर रही थी।वह बिस्तर से उठकर बैठ गई।काउल ने पूछा,“अकेले मेरे साथ रहने में कोई आपत्ति  हो तो दूसरे कम्पार्टमेंट में पहुंचाने में आपकी मदद कर सकता हूँ।”

उस नारी ने कहा,“हां,थोड़ा संकोच जरूर है,मगर कोई संदेह नहीं।मगर मैं अस्वस्थ हूँ।इसलिए  कोई साथ रहे तो हर्ज क्या है?फिर दूसरे कंपार्टमेंट में जाने पर अपरिचित मिलेंगे ही,जबकि  आप तो कुछ परिचित हो चुके हैं।”
काउल ने कहा,“अगर जरूरत हो तो मेरी मदद लेने में आप किसी भी प्रकार का संकोच न करें।मेरी नींद वैसे गहरी है।मगर थोड़ी सी आवाज से मेरी नींद टूट जाएगी।मगर इसके लिए सबसे अच्छी दवाई रोशनी है।अगर उठाना हो तो इस स्विच को दबा देना।उजाला होते ही मेरी नींद टूटने में कोई संदेह नहीं है।”

नारी ने कहा,भगवान करे,ऐसी स्थिति न आए।मगर आपकी बात याद रखूंगी।”

कुछ समय बाद वह नारी सो गई।चेहरे पर बीमारी के हाव-भाव साफ नजर आ रहे थे।

गर सारी रात काउल अपलक प्रतीक्षा करते रहे।जरूरत पड़ने पर शायद वह नारी उनकी सहायता मांगे।

काउल सोच रहे थे कि इस नारी में ऐसी क्या खासियत है,जो इतने कम समय में उसके प्रति आसक्ति उत्पन्न हो गई।कुछ समझ नहीं पाए।

ऐसे ही रात बीत गई।सुबह ट्रेन मद्रास पहुंच गई।कंपार्टमेंट के बाथरुम से बाहर आकर  काउल  ने देखा कि वह नारी कंपार्टमेंट छोड़कर जा चुकी है।प्लेटफार्म पर उसे इधर-उधर खोजा।कुछ  पता नहीं चला।काउल अपने घर आ गया।ड्राइवर गाड़ी लेकर स्टेशन आया था।

उस दिन सुबह जल्दी उठ कर दिनचर्या से निवृत्त होकर तैयार होते समय उसे पता चला कि टाइपिन खो गई है।स्विजरलैंड के ड्यूरीक से लाया था उसे।उस टाइपिन में छोटा सफ़ेद हीरा लगा हुआ था।वह पिन कमीज के बटन से मैच कर रही थी।अब शायद बटन बदलने होंगे।  काउल कितना अंधविश्वासी था! व्यापारिक समस्याओं के संदर्भ में अन्य लोगों से बातचीत करते समय यदि किसी प्रकार की अशुभ परिस्थिति उपजती तो यह हीरा उस परिस्थिति को  उनके अनुरूप बनाने में सहायक सिद्ध होता था,यह काउल की मान्यता थी।
आज काउल के लिए खास दिन था।हांगकांग के व्यापारी-दल के साथ सवेरे बातचीत के दौरान  निर्यात की जाने वाली वस्तुओं के दाम तय होने थे।व्यापार की दुनिया में इससे बड़ा कोई शुभ लग्न नहीं होता है।

सुबह होते-होते... 

काउल बाजार की ओर चल पड़े।पहले श्रीखंडी संग्रह करना होगा।उसी तरह सोना,हीरा।वैसे ही टाइपिन।इतनी जल्दी दुकानें खुली भी नहीं है।खोजते-खोजते एक बनिए की दुकान पर पहुंचते समय लगभग एक घंटे की देर हो चुकी थी।काउंटर पर पहुंचकर काउल ने पूछा,कोई इंपोर्टेंट चीज़ होगी? स्विस मेक? टाइपि?”


सेल्समेन ने काउल को विभिन्न प्रकार के टाइपि दिखाए।पास ही दूसरे काउंटर पर एक महिला खड़ी थी,उसके हाथ में सोने का हार था। दुकानदार क रहा था, इसका जन है.....  सफ़ेद साड़ी में आवृत्त।सूखे बालों की एक लट आगे आकर झूल रही थी।गर्दन और छाती की हड्डियों पर ब्लाउज चिपका हुआ था।कानों में दो मामूली सोने के फूल।उन पर लगे हुए थे टाइपि के जैसे सफेद डायमंड।शरीर में कोई जान नहीं।उत्साह नहीं।झील की तरह शांत,निराडंबर और अनासक्त।
शायद उनसे कहीं मुलाक़ात हुई होगीहुई होगी,कोई नई बात नहीं है।
“इसका दाम होगा............ ।आप चेक लेगी या नगद?”
“पूरे नगद।”

काउल देख रहे थे इस नारी की तरफ-विगत रात के ट्रेन में सहयात्री की तरह लग रही थी।  चेहरा वैसे ही,होठ वैसे ही,रात के मद्धिम प्रकाश में ठीक से नहीं देख पा रहे थे उसे। मन में कौतूहल पैदा हुआ।इतनी सुबह यह नारी अकेली आकर गहने बेच रही है,एक अपरिचित शहर में।
सर,और कोई टाइपि नहीं है।अगर चाहो तो इसे ले जा सकते हैं।पर सफेद डायमंड नहीं मिल पाएगा।” सेल्समेन ने काउल को बताया।

दुकान से काउल बाहर निकले। नारी भी बाहर निकली। काउल  ने पूछा,“पहचानती हो? गत  रात ट्रेन में आपका सहयात्री।”

अत्यंत धीमे स्वर में उसने कहा,“नमस्ते।”
काउल ने नमस्ते का उत्तर दिया।

“ कहां जा रही हो?” काउल ने पूछा।
“ब,थोड़ी ही दूर।एक परिचित मेहमान के यहां जा रही हूं।”
काउल ने गाड़ी की तरफ हाथ दिखाकर कहा, “चलो, गाड़ी में छोड़ दूँ?’
“माफ करें, मैं टैक्सी कर लूंगी।”

काउल टैक्सी खोजने के लिए फुटपाथ से सड़क की ओर गए।कुछ समय के लिए इधर-उधर खोजने लगे।मगर कोई टैक्सी नहीं मिली।पीछे मुड़ कर देखा तो वह नारी उनकी गाड़ी के सहारे आँखें बंद कर निस्तेज पड़ी हुई थी।वह तुरंत गाड़ी के पास लौटे।उसे जगाने की कोशिश की।मगर कोई उत्तर नहीं मिला।उसे हिलाया भी, कोई फायदा नहीं हुआ।ऐसा लग रहा था कि वह बेहोश हो गई हो।गाड़ी का दरवाजा खोलकर उसे पीछे की सीट पर सुला दिया।थर्मस से पानी निकालकर उसके मुंह पर छिड़कने लगे।अपनी गोद में सर रखकर चेहरा पानी से पोंछ दिया।बिखरे बालों को कान और ललाट से उठाकर गर्दन के पीछे कर दियाथोड़े समय बाद उस नारी ने आंखें खोली और फिर बंद कर दी।काउल धीरे-धीरे उसके माथे को सहलाते रहे।वह नारी पीड़ा से कराह रही थी। काउल के पैंट,शर्ट,रुमाल भीग चुके थे।उनके शर्ट के स्लीव और बटन पर आँसू की बूंदे गिरकर जम चुकी थी।

“ थोड़ा पानी।”

काउल ने छोटे गिलास से पानी पिलाया।वह उनके मुंह को अपनी गोद में रखे हुए थे। ताकि उसे कोई असुविधा न होने पाए।
उस नारी को थोड़ा आराम मिला।

काउल ने पूछा, “तुम्हें अपने घर छोड़ दूँ ?”

उसने उठकर बैठने की भरसक कोशिश की। मगर सब बेकार।काउल ने उठने से नहीं रोका।  शायद एक अपरिचित नारी एक अनजान आदमी के सानिध्य में असंकोच अनुभव कर रही हो।

यह राजरास्ता है। फिर गाड़ी में दिक्कत होती होगी।चलो छोड़ आऊं मैं तुम्हें अपने ठिकाने पर।”
नारी ने कहा,“मेरे बैग में डायरी है।उसमें अस्पताल की पर्ची होगी।उसी पते पर लेकर चलिए,अनुकंपा होगी।”आंखें मूंदे पड़ी रही वह नारी।
काउल ने हैंडबैग खोलकर डायरी बाहर निकाली।डायरी के पन्नों के भीतर खुले लिफाफे में एक चिट्ठी पड़ी हुई थी।लिफाफे पर पता लिखा हुआ था- मनीषा चौधरी।लिफाफा खोलकर काउल ने पत्र पढ़ा।मेडिकल ऑफिसर के नाम पत्र लिखा हुआ था,उस दिन नर्सिंग होम में एडमिशन कराने के लिए।कुछ दिन रुकना होगा।फीस,घर का किराया आदि लिखा हुआ था।सारा भुगतान पहले से करना होगा।पता था कैंसर हॉस्पिटल नर्सिंग होम,चेन्नई।
काउल का सिर चकराने लगा।
ड्राइवर को अस्पताल चलने के लिए निर्देश दिए। मनीषा का सिर अभी भी उनकी गोद में था।  गाड़ी की गति के साथ मनीषा का सिर हिल रहा था,हाथ से काउल उसे रोकते जा रहे थे।  ड्राइवर से कहने लगे,जरा आहिस्ता चलो।”
लिफाफे में एक और चिट्ठी थी।
किसी मित्र के नाम मनीषा का लिखा हुआ खत था।
बंधु,मैंने बहुत वर्ष तक अंतहीन संघर्ष किया।शायद जीवन पर थोड़ा-बहुत अनुसंधान कर पाऊँयह मेरी आखिरी यात्रा है।तुम्हारा उपकार मैं जीवन भर नहीं भूल पाऊँगी।शायद और कितने  दिन जीने की चेष्टा करूंगी।अगर संभव हुआ तो अस्पताल से खत लिखूंगी।मन में यही शांति कि चलो जिंदगी में मेरे लिए कोई आंसू बहाने वाला न था और न कोई रहेगा।किसी के प्रति मेरा भी कोई कर्तव्य नहीं बचा है।जन्म-मरण तो मामूली रोजमर्रा की घटनाएँ हैं।दूसरों के लिए इनकी क्या खासियत हो सकती है?

॥इति॥

काउल ने एक दीर्घश्वास ली।मनीषा का चेहरा शांत,नीरव,निश्चल भाव से पड़ा हुआ था काउल  की गोद में।

दोनों पत्र लिफाफे में रख दिए।गाड़ी नर्सिंग होम पहुंच गई थी।स्ट्रेचर पर रख कर निर्धारित कक्ष में ले जाया गया।डॉक्टर पहुंचे।रोगी की परीक्षा की गई।

बीमारी बढ़ती चली गईछाती का कैंसर।मनीषा निस्तेज भाव से बिस्तर पर पड़ी हुई थी। किसी से कोई शिकवा नहीं।जिंदगी में उसे कुछ भी नहीं मिला। किसी से कोई आशा भी नहीं। मरुभूमि की बालू तरह मूल्यहीन,गंधहीन और अर्थहीन।

कोठरी से सब लोग जा चुके थे।काउल के हाथ में मनीषा का हैंडबेग था।उसमें से सारे कागज़ निकालकर काउल ने पढकर समझा मनीषा के जीवन के विक्षिप्त इतिहास।कभी पिता नैनीताल के रहने वाले थे।मां-पिता जल्दी चले गए इस दुनिया से।कोई सगा-संबंधी नहीं था।  कुछ दिन पहले कलकत्ते की किसी कैंसर अस्पताल में इलाज के लिए गई हुई थी।वहाँ कुछ खास फर्क नहीं पड़ा।सारा धन इसके इलाज के लिए खर्च किया जा चुका था।फिर भी कोई आशा नहीं थी।इसलिए डॉक्टर ने आखिरी कोशिश के लिए उसे चेन्नई की इस कैंसर अस्पताल में भेजा था।उनका दृढ़ विश्वास था,बस वह कुछ महीने की मेहमान है।फिर यह
छोटा-सा दीप सदा-सदा के लिए बुझ जाएगा।

मनीषा ने फिर से आँखें खोली।उसके बिस्तर पर बैठकर काउल ने धीमे से पुकारा, “मनीषा!”

जवाब देने भर की शक्ति नहीं थी मनीषा में।
कष्ट हो रहा है?”
एक विनतीपूर्ण दर्दीली हंसी से देखती रही काउल की तरफ।
“सोने की कोशिश करो!” निरीह शिशु की तरह मनीषा ने आंखें बंद कर ली।काउल ने चादर से उसका शरीर ढक दिया।अपनी घड़ी की ओर देखा तो उनके उस दिन के इंगेजमेंट का समय कब से निकल चुका था।
काउल ने नीचे उतरकर फॉर्म में गार्जियन की जगह अपना नाम लिख दिया।जरुरत होने पर किसे खबर दी जाए,उस जगह पर अपना पता लिख दिया।चेक काटकर डॉक्टर की फीस और नर्सिंग होम का किराया जमा करा दिया काउल ने।गहने बेचकर मिले पैसों को मनीषा के बैग में डालकर ऑफिस में जमा करवा दिया।डॉक्टर को हिदायत दी गई कि मनीषा उनकी  आत्मीय है।यथासंभव इसे बचा लें।जो कुछ करना होगा,उसके लिए वह तैयार है।इस फोन नंबर पर मुझे खबर देना, अगर कोई अर्जेंट जरूरत हो तो।

वहाँ से विदा लेकर काउल गाड़ी में बैठे।ड्राइवर को अपनी पूर्व निर्धारित एंगेजमेंट वाले कार्य-स्थल पर जाने के निर्देश दिए।गाड़ी में बैठे-बैठे अपने कोट की टाइ को संयत कर लिया। शर्ट के बटनों को रुमाल से साफ कर लिया।दफ्तर में पहुंचने पर पता चला कि मौसम की खराबी के कारण हवाईजहाज समय पर नहीं आ सका।आगंतुक लोग निर्धारित समय पर नहीं पहुँच पाए।काउल को उस दिन अपने ऑफिस का काम पूरा-पूरा करते करते दिन के दो बज गए। उस दिन काउल ने लंच होटल में लिया।फिर अपने कमरे में लेटर अखबार पढ़ने लगे।  अखबार के पीछे वाले पन्ने पर बनी एक फोटो उस दिन की खबर को बीच-बीच में याद दिला देती  थी- मनीषा का बीमार सफेद बदन, विनती भरी निगाहें, असहाय होठ।

काउल की ऐसी धारणा थी कि किसी भी सामयिक प्रकृति ने उसे अपने जीवन में प्रभावित नहीं किया है।जीवन में उसने जो कुछ किया,धीर बुद्धि,स्थिर चित्त से।चाहे घोड़ों की रेस हो,चमड़े का व्यापार हो,यहाँ तक कि नारी उपभोग का प्रस्ताव क्यों न हो।पता नहीं क्यों, आज खुद पर थोड़ा संदेह हो रहा था।सोचने लगे, उसकी आंखें और होठों के समन्वय में कुछ बात जरूर है।लेकिन वह तो किसी शाम का सहारा बनने लायक भी नहीं है।फिर उसके साथ संबंध तो श्मशान की शोभायात्रा वाला संबंध है।केवल कुछ पल बाकी है।  

  क्लब में उस शाम उनकी मुलाक़ात हुई मिस्ट चौहान,मिस्टर सिंह,मैथ्यू और अनेक लोगों से।रमी का खेल चलता रहा रात के आखिरी प्रहर तक।खेल के लिए प्रेरित करते रहे मिस गुप्ता और जानी वाकर।

“डार्लिंग,तुम बहुत बड़े लकी हो।”
“मिस गुप्ता,जी आजकल की नारियों की तरह है।उपेक्षा करो तो आग्रह मिलेगा।”

“तुम्हारे दंभ से घृणा करने पर भी तुम्हारे कृतकार्य का सम्मान करती हैं।”

“रात के बचे-खुचे क्षणों में अपने सारे कृतकार्य तुम्हारे कदमों में समर्पित करता हूँ,मिस गुप्ता।”

काउल नाटकीय अंदाज में सिर झुकाकर,हाथ हिलाकर सहमति प्रकट कर रहे थे।

अंत में खेल खत्म हुआ।
बटलर और चौकीदार ने उन्हें सलाम किया।चारों ओर से अर्धसुप्त ड्राइवर गाड़ी में लाइट लगाकर पोर्टिको तक ले आए।मिस गुप्ता और काउल चल पड़े काउल के फ्लैट की ओर।

सुबह उठने में देर हो चुकी थी।मिस गुप्ता बहुत पहले ही जा चुकी थी।एक कागज सिरहाने
पर रखा हुआ था।उसमें लिखा हुआ था- “ब्रह्मचर्य प्रमाणित करने के लिए किसी नारी के साथ रात भर सोने की जरूरत नहीं है।अफसोस है कि मिस्टर काउल जैसे बुद्धिमान को यह  बताना पड़ा।”
 गुप्ता

काउल ने कागज फाड़कर डस्टबिन में फेंक दिया।यथाशीघ्र तैयार हो गया नर्सिंग होम जाने के लिए।
रास्ते में कुछ फूल खरीद लिए। नर्सिंग होम पहुँचकर उन्हें देते हुए कहने लगे,गुड मॉर्निंग।”
मनीषा ने कृतज्ञता से काउल को नमस्कार किया।

बाएँ हाथ में एक अंगूठी पहनी हुई थी।जिसके ऊपर एक छोटा लाल पत्थर जड़ा हुआ था।  नाखून लंबे और निस्तेज थे।बाकी उंगलिया नम्रता का सुंदर चित्र आं रही थी।

आज कैसा लग रहा है?”
मनीषा जरा-सी मुस्कुराई।कहने लगी,“कोलकाता में डॉक्टर हमेशा कहा करते थे,मनीषा!आज तुम्हारी अवस्था बेटर है।मगर कहां कभी तो गुड नहीं कह पाई।”

काउल ने बात बदल दी।

कहने लगे,“अपने किसी आत्मीय के बारे में बता रही थी? उनके पते पर कुछ खबर करना है?”
“कोई जरूरत नहीं है।बस,वहाँ मेरा एक सूटकेस था,मंगवा लिया है।वह भी मेरे दूर-रिश्ते के हैं।  कोई चारा नहीं मिला तो एक रात वहाँ रुकी थी।”

कुछ सोचकर मनीषा गंभीर हो गई।भरे गले से पूछने लगी,क्या मैं आपका नाम पूछ सकती हूं?”
“रमेश काउल।”
“आप यहां ?”
“व्यापार करता हूं।पूरे भारत में।यहां भी हमारा केंद्र है।”

मैंने कल आपका वक्त और धीरज बर्बाद किया।”
“कोई भी आदमी एक दूसरे के लिए इतना तो कर ही सकता है।”

“शायद आपको पता नहीं है।मेरा रोग जानलेवा ..असाध्य ...है!बस उसकी एक ही परिणति है।” मनीषा की आंखें छलछला उठी।अपने आप को संभालने के लिए मनीषा दूसरी दिशा में देखने लगी।

मनीषा! सच या झूठ जानने की चेष्टा मैंने नहीं की।झूठ भी हो सकता है।मगर मन को संतोष देने और जीवित रहने में मदद करने वाली एक चीज है,जिस पर भरोसा करना होगा।  वह है भाग्यउस पर विश्वास करो।शायद परिवर्तन हो जाए।असाध्य साध्य में बदल जाए।  असंभव संभव हो जाए।”


“काउल साहब! मैं ढलता हुआ सूरज हूँ।कोई भी शक्ति मुझे ढलने से बचा नहीं सकती।दिग्वलय में लीन होने में बस वक्त कितना बाकी है?आज मन करता है कि आज की रात,संगीत,रोशनी,जिंदगी सब-कुछ का उपभोग कर लूँ।कुछ देर के लिए इच्छा होती है,खुद को सजाऊँ।दुनिया के सारे रूपों में खुद को ढक दूँ।मन-ही-मन देखती हूँ यह मेरी मम्मी है,यह मेरे डैडी है,यह मेरे पति है,मेरे बेटा,मेरी बेटी-इस तरह सभी को।रात बीत रही होती है।सभी लोग मुझे चारों तरफ से घेर लेते हैं।हल्का-हल्का प्रकाश घर को रंगीन बना देता है।धीरे-धीरे
मैं मिटती जाती हूँ। मगर नारीत्व की सार्थकता बनी रहती है।”

एक महीने बाद आप सुनेंगे नर्सिंग होम का पाँच नंबर कमरा खाली है।यह लंबा रास्ता जो है,इस पर सामने से एक और पीछे से दूसरा कोई स्ट्रेचर पर ठेल रहा होगा।मुंह ढककर रखा हुआ होगा।शरीर इधर-उधर डोलता होगा।लोग कहेंगे शवकहां गए डैडी,कहां गई मम्मी,कहो काउल साहब!”

इतनी बातें कर एक ही सांस में कहकर मनीषा थक-सी गई।फिर कहने लगी,“यह चित्र मेरे पास नया नहीं है।कई दिनों से परिचित हो चुकी हूं।लेकिन चिर-मिलन कब होगा,उसकी प्रतीक्षा है केवल।”
मनीषा के चेहरे में कोई न कोई खास बात है,जिसके कारण कई लोग उस पर विश्वास करते हैं।थोड़ी देर में उसने गोपनीय गूढ सत्य को उजागर किया।काउल ने भी उसका आदर किया।


अकेले खाई में सोते हुए तेजी से निकट आ रहे शत्रु के इंतजार में बैठे सिपाही की तरह मौत के साथ हिसाब-किताब कर रही थी मनीषा।फर्क केवल इतना है दुश्मन के साथ संधि करना  संभव है,मगर मनीषा का भविष्य अपरिवर्तनीय है।अतः कौन आता-जाता है?कौन परिचित-परिचित है? क्या नया-पुराना है?काउल साहब,कोई मायने नहीं रखता है।इतना कहने पर भी मनीषा के मन में कोई पछतावा नहीं था।मगर मन में इतना संकोच जरूरत था-शायद यह सज्जन मेरे इस आत्मचरित को पसंद नहीं करें!

नर्स,डॉक्टर पहुँच गए।मनीषा को इंजेक्शन वगैरे दिए गए।डॉक्टर ने कहा,“कल से पूरी जांच शुरु होगी।”
काउल की तरफ देखते हुए डाक्टर ने कहा,आपका पेशेंट अच्छा है।आपके मुताबिक मिस  चौधरी के इलाज की दैनिक रिपोर्ट आपके पते पर भेज दी जाएगी।”
इधर-उधर की मामूली-सी बातचीत कर डॉक्टर और नर्स चले गए।

मनीषा ने घड़ी देखकर कहा,“अभी दस बज गए है।आप ऑफिस नहीं जाएंगे?”

 “रोजमर्रा का काम खास नहीं होने पर भी मुझे आज जाना होगा।”
 “ तब तो बेमतलब देरी हो जाएगी।”

मनीषा का इतिहास काउल की नस-नस में स्पंदन कर रहा था।कैसी निसंग और लाचार जिंदगी!एक मुट्ठी दाने के लिए अख़बार बेचकर फुटपाथ की रोशनी में जो जिंदगी उसने बिताई थी,अपनी रोग-शय्या में उनींदे रात भर बैठे थे।खोज रहे थे,इस सारी दुनिया में कोई तो होता जिसे वह अपना कह सकते,अपने मन की वेदना बता पाते पल भर के लिए सही।  मगर आशा अधूरी रह गई।काउल  के अतीत जीवन का एक पन्ना थी मनीषा।

चेयर से उठ गए काउल।

मनीषा के बिस्तर पर दोनों हाथ रखकर मनीषा के बारे में गहराई से सोचने लगे।मन-ही-मन एक महत्वपूर्ण फैसला लेने के बारे में सोचने लगे।यह नारी इसके लायक है या नहीं!किसी प्रतिदान का प्रश्न नहीं था,कोई हताशा हाथ लगने वाली भी नहीं थी,केवल विजय पाने के लिए। अपने अतीत पर वर्तमान की।मनीषा की निस्सहाय परिस्थिति पर काउल की कृतकार्यता की।
बिना कुछ कहे काउल कमरे से बाहर निकल पड़े।बाहर निकलते समय दरवाजे पर हाथ हिलाकर मनीषा से विदा ले रहे थे।

उस दिन ऑफिस का काम पूरा होते-होते शाम हो गई।काउल सीधे नर्सिंग होम चले गए।  नर्सिंग होम में शयन-बत्ती का हरा रंग कमरे में हल्का प्रकाश भर रहा था।मनीषा जूड़े में फूल खोंसे हुई थी।खूब सुंदर दिख रहा था उसका बीमार पांडुर चेहरा।

“मनीषा!”
उत्तर में धीरे-से नमस्ते कर दिया मनीषा ने।

“देखो,तुम्हारे लिए क्या लाया हूं।”
मनीषा के हाथ में उन्होंने एक पैकेट थमा दिया।उत्साह के साथ मनीषा ने वह पैकेट खोला।  धागे की गांठ को हल्के से खोलकर कागज की परत को अच्छे से हटाकर देखा।अंदर में एक साड़ी थी।कोमल केले के पत्ते की तरह एक हरी साड़ी।

दोनों हाथों में लेकर छाती से चिपकाते हुआ कहा,काउल साहब! थैंक्यू, थैंक्यू।”
कुछ समय तक साड़ी को खोलकर चारों ओर उलट-पलटकर वह उसका बॉर्डर,रंग और धागे को देखने लगी। अपने शरीर पर उस साड़ी को बिछाकर कहने लगी,काउल साहब! एक बात जानते हो? जब मैं नैनीताल में पढ़ा करती थी।कान्वेंट स्कूल का व आखिरी साल था।हम सब पास हो गए थे। आखरी दिन हम फैंसी नाईट ना रहे थे।सब अलग-अलग चेहरे बनाकर वहां पहुंचे थे।कोई वेस्टइंडीज बना था तो कोई इंडियन प्रिंस तो कोई मिलिट्री ऑफिसर।मुझे रानी बनने के लिए कहा गया था।मैं मुकुट लाई थी,वास्तविक मुकुट।हमारे साथ ग्वालियर के लड़की पढ़ा करती थी, उसका मुकुट। डैडी,मम्मी मुझे बाजार ले गए थे।ठीक ऐसे ही साड़ी खरीदी थी मेरे लिए।ऐसी ही सोने की जरी।मुकुट में साड़ी पहनकर मैं सचमुच एक रानी की तरह दिख रही थी।मम्मी खुश होकर मुझे गले लगा रही थी।मुझे उसमें फर्स्ट प्राइज मिला था।यह बहुत दिन पुरानी बात होगी।आज से पहनने पर मजाक-सा लगेगा।”

“मनीषा,बिना गनों के भी तुम सदा रानी लगती हो।यह सारा आवरण तुम्हारे रूप की क्या मर्यादा बढ़ाएगा?”

काउल साहब, पता नहीं आप मनोवैज्ञानिक है या नहीं।मगर इससे अधिक मधुर बात आप मुझे और कुछ नहीं क सकते हैं।मेरा रूप,फिर उसकी समीक्षा।

“मनीषा! तुम्हारे साथ परिचय इतने कम समय का है कि शायद ही मैं तुम्हारे बारे में कुछ कह पाऊं।”

“काउल साहब!रात बहुत हो गई।क्लब में आपका डिनर लेट हो जाएगा।फिर कभी वक्त निकालकर आइएगा तो मैं अपनी जिंदगी और अपने परिवार के बारे में बताऊँगी।बस,धीरज चाहिए।आपको फिर किसी शिकवे की कोई गुंजाइश नहीं रहेगी।”

मनीषा के लिए रात का भोजन नर्स टेबल पर सजा कर चली गई।काउल  ने कहा,“ठीक है।  पहले डिनर कर लो।फिर तुम्हारे सोने के बाद मैं चला जाऊंगा।”



“ मां का मतलब ऑफिस जाते समय या बाजार में सौदा करने के समय बच्चों की देखभाल करने के लिए घंटे की दर से जिस व्यक्ति को नियुक्त किया जाता था,उसे बेबीसिटर कहते हैं।मगर मरणासन्न रोगी नारी को साड़ी और अपना समय देकर डिनर तक अस्पताल में इंतजार करने वाले को क्या कहा जाएगा,जानते हो?”
“ सूप ठंडा हो रहा है,मनीषा! तुम्हारी डेफिनेशन के लिए ब्रेकफास्ट तक अनायास प्रतीक्षा की जा सकती है।”
डिनर करने के बाद मनीषा छोटी टेबल से उठकर अपने बिस्तर की तरफ चली गई।काउल  ने पीछे से स्प्रिंग मोडकर बिछौने को आधी ऊंचाई तक फ़ोल्ड कर दिया।मनीषा आराम कुर्सी पर बैठने की तरह विश्राम लेने लगी।काउल ने एक सफेद चादर उसके कमर तक ओढा दी।
काउल साहब!लगता है मैं बहुत स्वार्थी हो गई हूँ।मैंने डिनर कर लिया है और अब विश्राम कर रही हूं।आप हैं कि ऑफिस से लौटकर यहां इतनी देर तक मेरे पास बैठे हैं।एक कप कॉफी तक नसीब नहीं हो सकीबना लेती हूँ? यहाँ सारा इंतजाम है।”
असहमति के लहजे में सिर हिलाते हुए काउल ने कहा,“मनीषा,एक बार नारद ने भगवान से पूछा,‘प्रभु!माया क्या है?’”
भगवान ने कहा,“समय आने पर समझा दूंगा।
बहुत दिनों के बाद दोनों वेश बदलकर मृत्यु-लोक के सुख-दुख जानने के लिए विचरण कर रहे थे।गर्मी के दिन थे।गांव के मुहाने पर पहुंचकर भगवान को प्यास लगने लगी।भगवान ने कहा,“नारद! मेरे लिए थोड़ा पानी लाओ।”
नारद पानी लाने के लिए गांव की ओर निकल पड़े।गाँव में घरों के सारे दरवाजे बंद हो चुके थे।कई घरों के दरवाजे खटखटा,मगर किसी ने जवाब नहीं दिया।वह एक गांव से दूसरे गांव गए।वहाँ महामारी फैली हुई थी।फिर वह दूसरे गाँव गए।उस गांव में पहुंचने तक शाम हो चुकी थी।नारद को कमजोरी लग रही थी।उन्होंने थोड़ा विश्राम लिया।रात में एक ब्राह्मण के घर में अतिथि बने।ब्राह्मण की एक सुंदर कन्या थी।घर में कोई मां-बाप नहीं थे।उस कन्या ने नारद की खूब सेवा की।नारद उसके प्रेम-जाल में पड़ गए।उससे विवाह किया।कई दिन बीत गए।बाल-बच्चे भी पैदा हुए।भगवान को भूलकर नारद घर-संसार बसाकर सुख से रहने लगे।    दुनियादारी की बाकी सारी बातें भी भूल गए।अचानक एक दिन भयावह बाढ़ आई।घर-बार सब बह गए।लोग-बाग ऊंची छतों और पेड़ों पर आश्रय लेने लगे।फिर भी स्थिति संभाल नहीं पाई।  पानी का स्तर बढ़ता गया।पेड़ों और छतों तक पहुँच गया।नारद के कंधे पर बैठ गई उनकी स्त्री।उनकी स्त्री के कंधे पर बैठा उनका बेटा।उसके कंधे पर बैठा दूसरा लड़का।इस तरह वे पानी को पार कर रहे थे।मगर पानी बढ़ता ही जा रहा था।पानी बढ़ते-बढ़ते नारद के कंधे,गर्दन,नाक तक पहुँच गया।जब पानी का स्तर और ऊपर चढ़ने लगा तो नारद छटपटा  कर बोलने लगे,हे भगवान,रक्षा करो।”


भगवान ने भक्त की पुकार सुनी।वहाँ प्रकट होकर भगवान ने कहा,“नारद, एक दिन तुमने पूछा था न माया क्या है! क्या इसका उत्तर मिला?”

मनीषा एकाग्रता से सुन रही थी।करवट बदलकर बैठ गई।  

“मनीषा,मेरे मन में कोमल भावनाएँ नहीं है।वैसे किसी काम का नहीं हूं।मगर थोड़े ही परिचय ने तुम्हारे लिए मेरे मन में ममता पैदा कर दी है।मैं माया में पड़ गया हूं।यद्यपि मैं नार नहीं हूं।”  

ममत्व की बात सुनकर मनीषा हंसने लगी।  

वह कहने लगी,“ यह ममता नहीं है काउल साहब, यह दया है।दुर्भाग्य से सड़क पर किसी की  दुर्घटना हो जाती है तो बटोही वहाँ जमा हो जाते हैं।यथा-संभव मदद करते हैं।एंबुलेंस में बैठाते हैं।फिर अपने-अपने घर लौट जाते हैं।एकाध आदमी अगले दिन अस्पताल में फोन कर कर लेते हैं,एक्सीडेंट केस का हाल-चाल जानने के लिए।काउल साहब!इसका मतलब यह नहीं है कि मैं आपकी मेहरबानी की हंसी उड़ा रही हूं या मैं आपके प्रति अकृतज्ञ हूं।”

“मनीषा,कृतज्ञता या सम्मान की मैं आपसे आशा नहीं रखता।मानवता के नाते जितना मुझे करना चाहिए,बस मैंने उतना ही किया है।” तभी नर्स नींद की दवा देने के लिए वहां आई। चे काउल वहाँ से चले गए।
अगले दिन वह व्यापार के सिलसिले में सिंगापुर चले गए।फोन पर नर्सिंग होम के डॉक्टर को कहा,“मनीषा को बता देना कि मुझे लौटने में एक हफ्ता लग जाएगा।मनीषा को मेरी तरफ से  शुभकामनाएं दे दीजिएगा।”

काउल को दैनिक समस्याएं हवाई-जहाज में बहुत मामूली लगती है।ऊंची-ऊंची इमारतें बच्चों के प्लास्टिक के खिलौने की तरह दिखती है।सड़के कागज पर खींची हुई सुर्ख लकीरों की तरह लगती है।कुछ समय बाद सफेद बादल रुई के फाहे बन जाते हैं।हवाई जहाज जब बादलों के
ऊपर उठता है तब चारों ओर केवल शून्य,महाशून्य दिखाई देता है।

“हेलो काउल!”
“हेलो मिस!”  ज्यादातर एयर होस्टेस काउल को जानती है।आधी जिंदगी तो आकाश में  बिताई  है।फिर बीच-बीच में स्मगलिंग के माल को लाने लेजाने में इन्हीं में से कुछ एयर होस्टेस घड़ी,सोने के हार या कुछ पैसे लेकर काउल की मदद करती है।

काउल हर काम के लिए उचित कीमत देते हैं।उनका ख्याल है कि पैसों से दुनिया की हर चीज मिल सकती हैं।बस फर्क है केवल कीमत का,चीज पाने का नहीं।

हवाई जहाज से काउल सिंगापुर पहुंचे। पहले उन्होंने अपना व्यापारिक काम सफलतापूर्वक सम्पन्न किया।उसके बाद रात को सिंगापुर की मौज-मस्ती का लुफ्त उठाया।

चाहते तो वह कुछ दिन और रुक सकते थे।मगर लौटने का उनका मन कर रहा था।लौटते समय वह सोच रहे थे कि अचानक लौटने की आज ही इच्छा क्यों हुई।उनके लिए तो दुनिया का हर देश एक समान है।दिल्ली,टोक्यो,बेरूत,लंदन-सब बराबर। दिन में व्यापार संबंधी काम और रात में मौज-मस्ती।वास्तव में सारी दुनिया एक है।यह कथन वेंडल विल का है।मगर काउल ने इंतजार नहीं किया।खुद उन्होंने इस बात का अनुभव किया।फर्क सिर्फ एक्सचेंज में है। भाषा में कहीं पाउंड कह देते हैं तो कहीं फ्रेंक, कहीं इयान कहते हैं तो कहीं रुपया। कहीं फारसी भाषा है तो कहीं अरबी!

काउल लौटे। उनके मन के झिलमिलाते पर्दे की ओट में बीमार मनीषा की धुंधली-सी तस्वीर दिखाई देने लगी।यह इसकी दशा?बेचारी मनीषा!सगे-संबंधियों और मां-बाप विहीन मनीषा।सोचने लगे, परिचित अस्वस्थ व्यक्तियों के प्रति ममत्व और मानवता मनुष्य का कर्तव्य-मात्र है।
एयर होस्टेस लीला ने कहा,ताज्जुब है आज काउल इतने शांत!”
दूसरी ने कहा,नहीं,यह तूफान के पहले की निस्तब्धता है।”
 लीला ने कहा,“ ऐसा लगता है,सिंगापुर के उच्छृंखल जीवन के बारे में सोच रहे है?” 

काउल सोचने लगे,इतने कम दिनों के अंदर उनकी मानसिक स्थिति में किस तरह परिवर्तन हो रहा है।यह परिवर्तन साधारण होते हुए भी महत्त्वपूर्ण है।जिन चीजों में कभी उन्हें आनंद आता था,आज अचानक रसहीन हो गई थी।जो अर्द्ध-नग्न कैबरे डांसर रात-रात भर उन्हें बांधे रखती थी,आज अचानक मांसपेशियों का मामूली प्रदर्शन नजर आने लगा था।जो शराब हरदम उनकी संगिनी बनी रहती थी,आज यह फालतू लगने लगी थी।

वह उस दिन सिंगापुर-क्लब से जल्दी लौटना चाहते थे।हंसते हुए किसी ने कहा,“स्वामीजी! रात होते ही आश्रम का द्वार बंद हो जाएगा।गुरुदेव रूठ जाएंगे।जल्दी प्रत्यावर्तन करें।”

 काउल हवाई जहाज की खिड़की से आकाश की तरफ देख रहे थे।आदमी के मन की तरह  आकाश भी अभेद्य है।चारों और तारे टिमटिमा रहे हैं। नीचे बादलों के झुंड कारपेट की तरह दिखाई दे रहे थे। पुराणों में इस बात का उल्लेख है,जो लोग महापुरुष होते हैं वे लोग इसी प्रकार तारे होकर आकाश में निश्चल,विच्छिन्न होकर रहते हैं।मगर खूब सुनसान लगता होगा।कोई साथी नहीं,कोई मित्र नहीं,एकदम अकेले
किन्तु मैं भी तो बहुत अकेला हूं।ऐसा क्यों? इतने मित्र,इतने कार्यकर्ता,इतने साथी,इतने  पैसे तो है।जो चाहा सब मिला।केवल घर-संसार नहीं बसाया।मगर यह दुनिया तो पैरों की बेडी है।
ऊपर उठने में तुम्हारे लिए अवरोधक है।

एक बार चर्चिल के पास लॉर्ड बेब्रूक बैठे थे।चर्चिल ने पूछा,“मिस्टर बेब्रूक, आपके जिंदगी की बड़ी-बड़ी घटनाएं या माइल-स्टोन क्या है?”
बेब्रूक ने कहा,“ जब मैं 22 बरस का था तब मैंने विवाह कर लियाथा।

चर्चिल ने बात करते हुए कहा,“मैं माइल-स्टोन के बारे में पूछ रहा हूं।मिल स्टोन के बारे में  नहीं।दुनिया,पत्नी,बाल-बच्चे सभी मिल स्टोन है,,गले के चारों ओर चक्की के पाट की तरह।”
काउल चिंतन करने लगे- इससे मजेदार बातें मिल्टन के बारे में है।विवाह के बाद मिल्टन ने लिखा था पैराडाइज लॉस्टपत्नी के मरने के बाद में क्या लिखा था पैराडाइज रीगेंड’?यही तो दुनिया है!”
लीला सोने के लिए कंबल देकर चली गई।हवाई जहाज के अंदर की बत्तियां बुझा दी गई।  खिड़की से तारें और भी ज्यादा उज्जवल दिखाई देने लगे।
काउल को नींद आने लगी।अपनी गोद में मनीषा के उसी शांत,निरीह सिर की उपस्थिति अनुभव करने लगे। अचानक नींद खुल गई,मगर स्मृति मधुर लगी।मन ही मन में सोच रहे थे,पहले दिन जिस तरह असहाय हालत में थी,यदि जागृत अवस्था में उसी तरह होती तो!
काउल ने सोचा,शायद यही तो नारी का मातृत्व है।जो हलचल पैदा नहीं करता,बल्कि एक प्रलेप प्रदान करता है।धीरे-धीरे काउल को फिर से नींद आने लगी।मनीषा की स्मृति में खोए हुए काउल चैन से सो गए।
जब काउल उठे,तब उगते सूर्य की आभा से आकाश में लालिमा छाई हुई थी।कुछ समय बाद वह हवाई जहाज से नीचे उतरे।चेन्नई एयरपोर्ट से सीधे नर्सिंग होम में मनीषा के पास पहुंचे।  

“मनीषा!”काउल ने आवाज लगाई।

कोई उत्तर नहीं मिला।नर्स ने बताया,“पिछले दो दिनों से बीमारी बढ़ गई है।”

काउल ने नर्स को बाहर बुलाकर बातचीत की।नस के ख्याल से उसका आखरी समय नजदीक था।जीवन के दिए को बुझाने में सिर्फ कुछ दिन और बचे हैं।इसके लिए प्रतीक्षा करनी है।  फिर नियति को रोकना असंभव है।

काउल को अपने अंदर बेचैनी-सी लग रही थी।तुरंत वह मनीषा के डॉक्टर के पास गए और पूछने लगे,कैसी हालत है मनीषा की?”
धीरे-धीरे हालत हमारे कंट्रोल से बाहर होती जा रही है।पंद्रह दिन के अंदर तुरंत ऑपरेशन की जरूरत है।” डॉक्टर ने कहा।
“ऑपरेशन कहां हो सकता है?” काउल ने पूछा।

“यहां हो सकता है।मगर कोई गारंटी नहीं है।संभव हो तो भारत के बाहर स्विजरलैंड डयूरिक में डॉक्टर एण्ड्र्युज  के पास ऑपरेशन कराने की कोशिश करें।”इसी बीच मैंने उनसे काफी समय तक परामर्श किया है।वह ऑपरेशन के लिए तैयार है।
नीषा की जिंदगी आज काउल के लिए एक चुनौती बन गई।अपना सारा अतीत मानो काउल को हुंकार रहा हो –“देख, एक दिन तू भी ऐसे ही लाचार,दरिद्र और बीमार था।भाग्य न तुझे बचा लिया।मगर क्या इसे बचा पाएगा? कितनी तेरी ताकत है,कितना पैसा है तेरे पास में?  दिखा तेरी ताकत! दिखा दे तेरी मर्दानगी!”

 काउल ने सोचा,ठीक है,मैं यह चैलेंज स्वीकार करता हूँ।मनीषा को बचाऊंगा।यह मेरे जीवन  का अतीत अध्याय है।चाहे,मुझे जो भी कीमत क्यों न चुकानी पड़े।”

वही जु वाला नशा।जिस नशे की खुमारी में वह घुड़दौड़ में बर्बाद हो गए थे,जिस नशे में लात मारी चेयरमैनी को,उसी नशे में जिंदगी को मुट्ठी में भरकर फेंक सकते हैं।काउल अपने आपको मिटा सकते हैं।

काउल ने कहा,डॉक्टर एण्ड्र्युज  के पास ऑपरेशन कराने की आप व्यवस्था करें। स्विट्जरलैंड में अस्पताल तय करें।मैं खुद मनीषा को लेकर जाऊंगा।अगर परिस्थिति अनुकूल रही तो  इसी हफ्ते के भीतर।”

मनीषा के लिए पासपोर्ट बन गया, टिकट आ गया।खुद के लिए तो ये सब आम बात थी।

मनीषा की हालत दिन-ब-दिन बिगड़ती जा रही थी।सूखे होठों पर बहुत सारे साँवले दाग पद गए थे।आंखों के नीचे भी काली रेखा दिखाई दे रही थी।अंगुलियां मैली हो गई थी।उसकी व्याकुलता कम नहीं हो रही थी,असहायता में कोई कमी नहीं  रही थी!

“मनीषा! मैं काउल हूं।मैं सिंगापुर से लौट आया हूं।” विनीत भरी नजरों से टुकुर-टुकुरकर देखती रही मनीषा। कुछ समय के लिए उसने आंखें खोली।फिर निर्जीव-सी लेटी रही।

मनीषा के दोनों हाथ पकड़कर काउल  ने पूछा,“सुनो मनीषा,मैं तुम्हें स्विजरलैंड ले जाना चाहता हूं।कोई तुम्हारे साथ चलेगा ?”

मनीषा की दोनों छोटी-छोटी हथेलियां धीरे-धीरे काउल के हाथ में बिना किसी प्रतिवाद के कुछ समय तक पड़ी रही।मनीषा उत्तर देने की अवस्था में नहीं थी।

काउल ने पैसों की तलाश की।इतना पैसा उसके पास में नहीं हो सकता है। कई एजेन्टों से भी बातचीत की।परिस्थिति में कुछ सुधार हुआ, मगर आवश्यकता पूरा नहीं हो पा रही थी। उनका चेन्नई में छोटा-सा कारखाना था।उसे आनन-फानन में कौड़ियों के भाव बेच डाला।

एक सप्ताह बाद वह हवाई-जहाज से मनीषा को स्विजरलैंड ले गए।निस्तेज,निर्वाक मनीषा के  सिर को अपनी गोद में लेकर वह आकाश की तरफ ताक रहे थे।सिंगापुर से वापिस आने के  समय वाला सपना साकार हो रहा था।वह सोच रहे थे,इतने बड़े आकाश में भगवान अगर कहीं है तो मेरी मनीषा की रक्षा करो,उसे बचा लो।

हवाईजहाज ड्यूरीक पहुंचा।पूर्व निर्धारित प्रोग्राम के मुताबिक डॉक्टर एण्ड्र्युज ऑपरेशन के इंतजार कर रहे थे अपने अस्पताल में।मनीषा के शरीर की परीक्षा की गई। थोड़ी तबीयत ठीक होने पर ऑपरेशन किया जाएगा।एक-दो दिन इंतजार करना होगा।

काउल ने अपनी जिंदगी में अनेक शारीरिक कष्ट और मानसिक यंत्रणाएँ भोगी है।मगर इन  दो दिनों की प्रतीक्षा के बारे में कुछ मत पूछो। आखिरकार ऑपरेशन हुआ।डॉक्टर एण्ड्र्युज सफल हुए।काउल  की विजय हुई।काउल ने डॉक्टर को हार्दिक कृतज्ञता ज्ञापन की।

रात-दिन मनीषा के बिस्तर के पास काउल बैठकर जगुआली कर रहे थे।बीच-बीच में मनीषा  देख लेती थी उसी कृतज्ञता भरी दृष्टि से।

मनीषा स्वस्थ हो रही थी। वह उठकर बैठने लगी।धीरे-धीरे उसने चलना शुरू किया।डॉक्टर ने दो महीने बाद भारत लौटने की सलाह दी।

एक दिन मनीषा ने पूछ लिया,“काउल साहब,मेरा भगवान मैं तो विश्वास नहीं है।मगर कहीं भगवान है तो आप ही मेरे लिए उनके अवतार है।”

काउल ने फूलों का गुच्छा मनीषा के बिस्तर के पास सजाया।“मेरे लिए आपने कितने कष्ट उठाए है।यह ऋण कैसे मैं उतार पाऊंगी।”

काउल विजय की दृष्टि से देखते रहे मनीषा की तरफ।

भारत लौटने का समय पास आ गया।मनीषा ने कहा,“काउल साहब,आज आपको मेरे लिए  सेक्रेटरी का काम करना होगा।कृपया कर आप कुछ पत्र मेरे लिए लिख दीजिए।”

काउल ने मुंबई,कोलकाता के परिचितों मित्रों को पत्र लिखें।परिवार वालों को खबर दी गई।  फर्श पर बिखरी माला जिस तरह समेटा जाता है,मनीषा आज उसी तरह अपनी विक्षिप्त  दुनिया के लोगों को फिर से जोड़ रही थी।
एक दिन मनीषा ने पूछा,“काउल साहब, भारत लौटकर आप क्या करेंगे?घर-संसार में रम जाएंगे, पति,पत्नी,बेटा-बेटी आदि के साथ।स्नेह,सहानूभूति से उल्लासित हो जाएगा आपका जीवन।नारी सौभाग्यवती होगी,क्यों?”
काउल ने कहा,मनीषा मुझे अगर ठीक से जानती हो तो समझ गई होगी कि मैं एक झूठ हूं,  क्षण-स्थायी हूं।”
मनीषा ने बात बीच में काट दी।
“सच-झूठ के विवाद का फैसला हो गया है,काउल साहब।”
एक बार बादल ने मलय से कहा, “मल, सत्य क्या है?”

इस संसार के माथे पर उगने वाला सूर्य,पृथ्वी के वक्ष-स्थल पर इतना बड़ा हिमालय क्या  यही सत्य है? तू जो अदृश्य अनुभूतिरहित,अन्यथा अंभोग्या और मैं इन्हीं छोटे-छोटे जल-कणों का समूह, हम क्या सत्य,चिरंजीवी,क्षणिक है?
मलय ने कहा,”बादल,सृष्टि का यह अभियोग हमारे प्रति सत्य है।सूरज की प्रखरता,हिमालय  का आधिपत्य जगत को स्वीकार्य अवश्य है।मैं अरूप हूँ,तुम अस्पष्ट।इसलिए हम दोनों क्षणस्थायी और असत्य है।”
मगर पता है, अगर एक बार तुम मेरे आगोश में आ जाओगे तो हमेशा के लिए तुम विलीन हो जाओगे।हमारा मिलन दृढ़,अभेद्य और संपूर्ण हो जाएगा।इस गंभीरता,आड़ोलन और आलिंगन से ध्रूम,विद्युत और कंपन उत्पन्न होंगे।जिससे सूरज डूब जाएगा,हिमालय अवगुंठित हो जाएगा।”

यह आत्मीयता,आलिंगन और मिलन सत्य होता है।जिससे प्रलय हो सकता है।

काउल मनीषा की ओर देख रहे थे।देख रहे थे अपना अतीत।सलीम की दोस्ती। वैश्याओं के
घरों में फूलों की बिक्री,शराबी,लंपट,जुआरी काउल।मनीषा एक प्रस्फुटित निरीह कोमल कली।  जिसका स्थान देवताओं का सिर है।

मनीषा ने मेरे भीतर केवल दीप्त आभा,विस्तृत मानवता देखी है।जिस दिन वह देखेगी कि  काउल अंधेरे गव्हर में है,उसका रूप विकलांग है,जहां सलीम रहता है,नीरा रहती है,बाईजी और अनेक है,शराबखाना है,जुए का खेल है,कालाबाजार का अड्डा चलता है-वहां मनीषा की कोमलता नष्ट हो जाएगी,बेचारी वह घायल हो जाएगी।शायद मनीषा मिल भी जाए तब भी उसकी जिंदगी किसी पेड़ से लिपटी मृत लता से कम नहीं होगी।सारी जिंदगी एक गहरी दीर्घश्वास बनकर रह जाएगी।


मनीषा क्षमा भी कर सकती है।मगर किसे क्षमा करेगी? उसने तो कोई पाप नहीं किया है, वह किसी भ्रम में भी नहीं हैं।जीवन में उसने जो कुछ किया उसके लिए कोई भी अनुताप नहीं था! क्या कालाबाजार बदल देंगे? जुए का नशा बदल सकेंगे? मगर क्यों?
काउल ने पूछा,“मनीषा,घर जाकर तुम क्या करोगी?पति,बेटे-बेटी की गृहस्थी में उलझ जाओगे।अस्पताल में उनके जो चित्र देख रही थी।”

मनीषा ने पूछ लिया,“काउल साहब! अगर कहूं हां घर बसाना चाहती हूं तो तुम उसमें मदद करोगे?”
“मनीषा तुमसे एक बात पूछनी है।तुम जिससे विवाह करती हो अगर वह शराबी,लंपट,जुआरी झूठा,झगड़ालू हो तो क्या करोगी?”

काउल साहब!प्रत्येक नारी जो करेगी, वही मैं करूंगी-आत्महत्या।मगर जानते हो मैं जिस पुरुष को चाहती हूं,वह खुद राम है।आदमी इतना बड़ा हो सकता है,कल्पना नहीं की जा सकती है।इतना रूपवान होगा कि कोई सका चित्र ही न बना सके।उसके स्पर्श की मुझे जरूरत नहीं है,बस उसकी उपस्थिति ही मेरे लिए पर्याप्त हैउसे देखते-देखते सारी जिंदगी गुजार दूंगी।”

“मनीषा,आदमी में भी परिवर्तन होता है।”
मनीषा ने उत्तर दिया,असंभव काउल साहब! मेरे राम सदा राम बनकर ही रहेंगे।”

काउल मन ही मन सोचने लगे,रावण भी राम बन सकता है।मगर मैं तो रावण नहीं हूं।मैंने तो कुछ अन्याय नहीं किया है,किसी का बुरा नहीं किया है,फिर भी यह कैसा समाज का अभियोग है?

मनीषा ने पूछा,“काउल साहब, आपने तो कभी भी अपने अतीत,अपने परिवार,अपने भविष्य के बारे में भी कुछ नहीं बताया।आपके महत्व का परिचय जरुर मिला है, मगर इतिहास तो छुपा ही रह गया।”

 काउल निरुत्तर थे।कुछ समय बाद कहने लगे,समय आने पर खुद जान जाओगी मनीषा!”

एक दिन काउल की तबीयत बिगड़ गई।बुखार और सिरदर्द बढ़ता गया।उस दिन शाम को वह नर्सिंग होम नहीं जा सके।उस शाम उनकी मनीषा से मुलाक़ात नहीं हो पाई।

रात को उस समय बारह बज रहे होंगे।दरवाजे पर घंटी की आवाज सुनाई दी।काउल बड़ी मुश्किल से उठे।देखा,नर्स के साथ मनीषा आई है।वह हाथ पकड़कर काउल को बिस्तर तक ले गई। कंबल ओढा दिया।काउल के दोनों हाथों को अपनी मुट्ठी में रखकर देखती रही मनीषा।   आंखें भर आई। काउल ने कहा,“यह ठीक नहीं किया।अभी तुम पूर्ण स्वस्थ नहीं हुई हो।  इतनी रात को शीत-लहर में तुम्हारा बाहर निकलना खतरे से खाली नहीं है।”

मनीषा ने कहा,काउल,क्या तुमने ही त्याग का झण्डा उठाने का ठेका लिया है? बाकी लोग क्या अमानुष है?”

उस रात मनीषा काउल के पैरों के पास बैठे-बैठे सोती रही।

सुबह हुई।काउल ने देखा,मनीषा उसके घुटनों के पास कोने में दुबककर उसी छोटे कंबल को ओढ़कर सो रही थी।काउल उठकर बैठ गए।कंबल से मनीषा की देह को ढक दिया। उसके चेहरे की तरफ देखते रहे। वही रेल वाला दृश्य।बिखरे केश,मधुर अधर,नम्र नेत्र और सुप्त नारी।इस बार वह केवल नारी नहीं थी।वह मनीषा थी।उनके हृदय की मनीषा।उनके जीवन का एक अंश।

कमजोरी लग रही थी काउल को।अधिक देर तक बैठना उनके लिए मुश्किल था। फिर से बिस्तर पर लेट गए। कुछ समय बाद मनीषा उठ खड़ी हुई। काउल के सिर पर हाथ रखा।  देखा,बुखार कम नहीं हुआ था।काउल बेचैन हो रहे थे।उनके सिर को गोद में लेकर वह सहलाने लगी।

डाक्टर और नर्स की व्यवस्था की गई।दवाइयाँ बाजार से मंगवा ली।अपने हाथ से काउल को दवाई खिला दी।वह खुद देखभाल करने लगी।

तीन-चार दिन बीत गए।इस दौरान मनीषा नर्सिंग होम नहीं जा सकी। उस समय डयूरिक में कड़ाके की ठंड पड रही थी।काउल ने कहा,मनीषा,आज हम दोनों का क्विट हो गया।एक दिन मैंने तुम्हारी सेवा की थी,तुमने सूद सहित मूल चुका दिया।”

काउल एक कुर्सी में बैठे हुए थे और कार्पेट पर मनीषा।काउल के पैरों की तरफ देखते हुए कहने लगी,हिंदू धर्म में पाप करने वालों को सजा मिलती है और पुण्य करने वालों को पुरस्कार।अगर कोई पाप और पुण्य दोनों करता है तो दोनों आपस में कटकर खत्म नहीं होते।आपको दोनों भोगने पड़ेंगे।अतः तुम अपनी सेवा के लिए अपना फल पाओगे और मैं अपनी सेवा के लिए अपना फल। दोनों क्विट नहीं हो सकते हैं।” दोनों हाथों की अंजुली फैलाकर मनीषा ने काउल को दिखाते हुए कहा,“मेरा फल मुझे दे दो काउल।”

काउल ने उस अंजुली को अपने हाथों में रखकर कहा, “तुमने पाप की बात कही। पाप होता क्या है?”

मनीषा ने कहा,“जिसे सारी दुनिया समझती है।”
काउल ने तुरंत पूछा, “जैसे?”

जैसे शराब पीना,जुआ खेलना,नारी-संभोग,झूठ बोलना इत्यादि।”

काउल ने मनीषा का हाथ छोड़ दिया।उसका चेहरा गंभीर हो गया।वह बेचैन-सा लगने लगा।

कुछ दिन बाद मनीषा ने कहा,“डॉक्टर से कल मैंने बात की थी।वह कहते हैं कि अब मैं बिल्कुल स्वस्थ हूं।भारत लौटने की अनुमति दे दी है।डाक्टर के अनुसारतुम्हारे लिए भारत का क्लाइमेट अच्छा है।मैं भी लौटना चाहती हूं।मेरे कई काम पड़े हैं।सबसे बड़ा काम है-तुम्हारा ऋण।शायद जिंदगी में उतार न पाऊं, भरसक कोशिश तो फिर भी करुंगी,जितना जल्दी हो सके।तुम्हें मंजूर है,काउल?”

काउल ने सहमति जताई।कहने लगे,“ इसका मतलब तुम स्वीकार करती हो मेरा निवेश ठीक  जगह पर हुआ है।अब मानती हो न कि मैं एक पक्का व्यापारी हूं?”

मनीषा ने कहा,“मैं तुम्हारे व्यापार के बारे में विशेष नहीं जानती हूँ।मगर इतना निश्चित क सकती हूं कि तुम्हारा मूल-धन जीवंत भाव से लौट आएगा।जो तुम्हारे पास अक्षय अमर अनंत होकर चिरदिन के लिए तुम्हारे कदमों में पड़ा रहेगा।”

उस दिन शाम को यूरिक में दोनों सिनेमा देखने गए।अंग्रेजी फिल्म थी,चार्ल्स डिकन्स की  “टेल ऑफ़ टू सिटीज”। लौटते समय मनीषा कह रही थी, “बहुत खूब! बैरिस्टर सिडनी कार्टून  प्रेम के लिए हंसते-हंसते गिलोटिन में चला जाता है,जीवन परित्याग कर देता है।मगर काउल  प्रेम के लिए खुद का नामोनिशान मिटा देना क्या संभव है?”


काउल ने पूछा, “तुम्हें क्या लगता है?”
मनीषा ने कहा,“काउल मैं बहुत स्वार्थी हूं।जिससे प्रेम करती हूँ, उसे जान देकर भी पाना  चाहूंगी।उस पर अधिकार जमाऊँगी, अपना बना लूंगी।अगर मेरा नामोनिशान मिट गया तो तब तो यह मिलन संभव नहीं हो पायेगा।यह नारी की प्रेम की कल्पना है,हो सकता है पुरुष का प्रेम और दांभिक होगा।वह अपने को मिटा डालने में परिपूर्णता समझता है।”

मनीषा कुछ समय चुप रहने के बाद पूछने लगी,“काउल, तुमने कभी प्रेम किया है?”
सवाल साधारण था,मगर उत्तर के लिए मनीषा एकनिष्ठ भाव से ताकती रही काउल की ओर।
काउल ने कहा, “नहीं।”
मनीषा ने पूछा, “अब तक भी नहीं?”
“मैं नहीं जानता।” काउल का उत्तर था।

नर्सिंग होम में मनीषा को छोड़कर टैक्सी ने काउल को उनके फ्लैट पर छोड़ दिया।काउल  के मन में सिडनी कार्टून की बात घूम रही थी। लूसी के प्रति प्रेम की कितनी बड़ी कीमत चुकाता है फिल्म का नायक,अपना जीवन त्याग कर। तुम महान हो सिडनी कार्टून!काउल के कानों में सिडनी कार्टून की आखिरी बात गूंज रही थी।

“ हां,आज मैं नेस्तनाबूद हो गया हूं,मगर लूसी के हृदय में सदा जीवित रहूंगा।आज के दिन हर वर्ष वह मेरे बारे में सोचेगी।अपने सुखी-संसार के भीतर वह कभी मुझे नहीं भूलेगी।अपने बच्चों को मेरे बारे में मेरा स्मृति-लेखा बताएगी।”

“आज जो कुछ क रहा हूँ,जीवन में ऐसा काम कभी नहीं किया।आज जो विश्राम ले रहा हूँ, जीवन में तो कभी ऐसा आराम नहीं मिला।अलविदा लूसी,हमेशा के लिए।

कुछ दिन बीत गए।अंत में दोनों मुंबई आए।मनीषा के परिवार के कुछ आत्मीय लोग खबर पाकर एरोड्रम पर आए।सभी उसे अपना अतिथि बनना चाहते थे।मनीषा ने काउल के साथ उनका परिचय करा दिया।

वह कहने लगी,“ये मिस्टर काउल है।एक प्रतिष्ठित व्यापारी,मेरे मित्र और मेरे जीवन दाता।”

मनीषा आखिर में अतिथि बनकर अपने परिवार वाले किसी के यहां चली गई।तब तक काउल  का व्यापार ठप्प होने लगा था।उनकी अवहेलना के कारण कर्ज काफी बढ़ गया था।पैसो का कोई हल तुरंत दिख नहीं रहा था।


काउल मुंबई के एक छोटे होटल में ठहरे।हर रोज मनीषा को देखने जाते। इसी दौरान मनीषा सुंदर युवती हो गई।

“ काउल साहब! आप कहा करते थे न,भाग्य नाम की कोई चीज इस दुनिया में होती है। हमने खुद उसे प्रमाणित कर दिया।”

“मनीषा,तुम्हें एक बात कहनी है?”
मैं जानती हूं,आप क्या कहेंगे? कहेंगे, मनीषा मुझे अपने व्यापार के काम पर जल्दी जाना होगा। उसका सीधा जवाब होगा, “नहीं”।मेरी अनुमति मिलने तक आपको यही इंतजार करना होगा।”
उस दिन होटल में पहुंचकर काउल आकाश-पाताल के बारे में सोचने लगे।मन ही मन हिसाब  कर रहे थे,मैंने जो कुछ किया है, क्या बिल्कुल निस्वार्थ है? क्या इसमें कोई स्वार्थ नहीं है?  केवल दंभ का प्रमाण भर देना था? या मैं मनीषा को चाहता हूं। यह जो खिलौना मैंने अपने हाथों से गढ़ा है क्या इसे किसी और के महल में छोड़ दूँ ? या उसे जीवन भर अपनी गोद में समेट लूँ ? फिर सोचने लगे, मगर जब मनीषा को पता चलेगा कि काउल उसकी कल्पना का राम नहीं है,तब वह खुद को भी क्षमा नहीं कर पाएगी।अगले दिन मनीषा से मिलने जाते समय तक शाम हो चुकी थी। काउल कहने लगे,मनीषा याद है न, मैंने जो हरी साड़ी नर्सिंग होम में दी थी, उसे पहन लो।”
मनीषा कुछ समय बाद वह साड़ी पहनकर आ गई। होठों पर लाल-लिपिस्टिक।ललाट पर बिंदी।आँखों में काजल की रेखा।
“मनीषा,तुमने अपने को देखा है? इस रानी के रूप को? तुम्हारी स्कूल वाली रानी को?”
मनीषा ने काउल के दोनों हाथ पकड़कर कहा,“काउल साहब,ये सब तुम्हारा दान है। मेरी जितनी उन्नति होगी,मेरा कर्ज उतना ही बढ़ेगा।मेरी एक सलाह है।थोड़ी प्रतीक्षा करें।”

घर के भीतर चली गई मनीषा।
एक भव्य महल की तरह घर। मोजाइक का फर्श। मार्बल की सीढ़ियाँ। सामने सुंदर लान। पोर्टिको में नई अमेरिकन गाड़ी रखी हुई है।वर्तमान में यहाँ मनीषा रहती है। भीतर से कोल्ड-ड्रिंक लेकर मनीषा आई। कहने लगी,काउल साहब, जीवन में भाग्य हो या नहीं,एक्सीडेंट होते ही है।यह घर देसाई के पिताजी का है।नैनीताल में रहते समय वह मेरे पिताजी के घनिष्ठ मित्र थे।उनके लड़के- लड़की मेरे साथ एक ही स्कूल में पढ़ते थे।उनका बेटा देसाई इसी बीच विलायत से इंजीनियर बनकर लौटा।उस समय सभी ने मजाक में हम दोनों की शादी करने के लिए प्रस्ताव दिया।  अब 10 वर्ष बाद फिर हमारी भेंट होती है।उनकी बहन कहती है मैं जल्दी उनके घर चली आऊँ।मिस्टर देसाई भी विवाह के लिए जोर दे रहे हैं।आंटी,अंकल सब बेंगलुरु में है।अगर मैं हामी भर देती हूं तो हम सब कल सवेरे चले जाएंगे बेंगलुरु उनकी सम्मति लेने के लिए।वे लोग तुरंत अनुमति दे देंगे।” मनीषा की आंखों में उपहास का संकेत था।
मगर काउल के दिमाग में कुछ समय के लिए सुनामी आ गई। ऐसा लगा जैसे वह एक  भूकंपग्रस्त इलाके में फंस गया है। निरुत्तर थे काउल। मनीषा देखती रही काउल की तरफ।
मनीषा ने कहा, काउल कुछ तो बोलो,समय बीत रहा है।”

 काउल खुद को मनीषा के अंदर देख रहे थे।

इस बीच अंदर से एक युवक बाहर निकल आया।नाम था देसाई।नमस्ते का आदान-प्रदान हुआ।फिर देसाई ने कहा,“सुना है कि आपने मनीषा के लिए बहुत कष्ट उठाए है।काफी पैसे भी खर्च किए है।मगर मनीषा इतनी स्वाभिमानी है कि कभी एक बार भी खबर हमें नहीं दी। चारो ओर ढूंढते-ढूंढते थक-हारकर हम लोगों ने तो आशा छोड़ दी थी।”

देसाई अत्यंत सुंदर,शिक्षित और सज्जन दिखाई दे रहे थे।रूप,गुण,वंश में मनीषा के लायक।  एक ही दुनिया के दो जीव।सहज मिलन,प्राकृतिक और विधेय।

काउल अपने बारे में सोच रहे थे।मनीषा की जीवन दृष्टि से देसाई के साथ अपनी तुलना कर रहे थे।प्रखर ज्ञान,प्रतिष्ठा,शिक्षा,रूप में देसाई मनीषा के आदर्श राम है।कभी कोई कल्पना कर नहीं सकता है कि देसाई कालाबाजारी के लिए जेल में तड़ीपार हुए, कभी कोई सोच भी नहीं सकता कि यह युवक बाईजी के मुजरे में हाजिर हुआ होगा?किसी वेश्या के आलिंगनबद्ध हुआ होगा? देसाई सूरज की तरह नियमित निर्दिष्ट दिखाई दे रहा था।मगर वह स्वयं? एक  नीतिहीन,चरित्रहीन,कक्षच्युत सामग्री।जिसका अतीत घिनौना है,वर्तमान कलंकित है,भविष्य
अंधकारमय है।

मन ही मन कहने लगे,“मनीषा,मेरी मदद करो।मैं तुम्हें मुक्ति दे रहा हूं।मेरा कर्तव्य पूरा हो गया।” निर्विच्छिन्न भाव से मनीषा के नारीत्व के नव-कलेवर की तरफ देखते रहे

मगर काउल मन ही मन सोच रहे थे,इतने सानिध्य और आत्मीयता के बावजूद मनीषा  किसी और के साथ विवाह करने की सोच रही है? अन्य के साथ अपना यह प्रस्ताव?उसने   जान-बूझकर मौका दिया है! मनीषा तुम रूपवती जरूर हो,गुणवती भी हो,मगर नारी  की दुर्बलता से ऊपर नहीं उठ पाई हो।देख रही हो,किसी और के निवेदन को अपने गौरव के लिए। जिसे नारी खूब गर्व के साथ स्वीकार किया करती है।

 मनीषा,तुमने मेरी भी तुलना देसाई के साथ की होगी।सोच रही होगी,कौन-सा पुरुष अधिक उपयुक्त है? मगर ऐसा मौका आने ही क्यों दिया? क्यों मेरी इस ममता का तुमने अपमान किया? शायद अतीत के मेरे दान के कारण तुम मेरी ओर आकृष्ट भी हो।मगर वह तो तुम्हारी कृतज्ञता होगी, तुम्हारा प्रेम नहीं। जो आज तुलना कर सकता है,वह कल भविष्य में परित्याग भी कर सकता है।मेरे इस पापी जीवन के बावजूद भी मैं तुमसे एकनिष्ठता चाहता था।मगर और यह संभव नहीं है।
दुख और पमान से विचलित हो गए काउल।मनीषा से उन्हें वितृष्णा होने लगी।काउल  ने कहा,“थोड़ी बेचैनी लग रही है।सोचता हूं,होटल जाकर आता हूं।”

मनीषा ने कहा, “नहीं,हमारे साथ आइए आप।”
देसाई ने कहा,“तबीयत खराब है तो आराम करना जरुरी है।काउलको रोकना ठीक न होगा।”

नीषा के विशेष अनुरोध पर काउल  गाड़ी में बैठ गए।देसाई के निर्देश पर अगली सीट पर बैठ गई मनीषा।देसाई गाड़ी चला रहे थे।काउल पीछे बैठे हुए थे।देसाई ने मनीषा के कंधे पर हाथ रखकर कहा,रास्ता तय करने का दायित्व मेरा है,जगह पसंद करने का तुम्हारा काम।  पिक्चर,मैरिन ड्राइव,हैंगिंग गार्डन या क्लब?”

आंखों के आगे देख रहे थे काउल इतिहास की वही पुरानी कहानी।ईंट से ईंट सजाई जा रही थी।बीच में थी अनारकली।वह विनती कर रही थी,रो रही थी,चीत्कार कर रही थी।समाधि क्रमशः पूरी होती जा रही थी।फिर बंद हो गई समाधि।शरीर दिखाई देना बंद हो गया।

अनारकली ने विश्राम लिया।इस क्षेत्र में जहाँगीर की कोई अनारकली नहीं है! वह खुद ही कब्र में दफन हो रहा था।सांस रुक रही थी,सीने में हलचल हो रही थी।काउल ने कहा,“मेरी होटल इस गली में है,बस यही छोड़ दो।”

मनीषा ने कहा,“काउल साहब,अकेले आप नहीं जा सकेंगे।मेरे साथ आइए या फिर मुझे अपने साथ चलने दीजिए।”

काउल ने कहा, “कोई आवश्यकता नहीं है,मैं यही से विदा लेता हूं।फिर होटल बहुत छोटा है, साफ-सुथरा नहीं है।”मनीषा ने कहा, “काउल,देसाई नहीं जा पाएंगे,मेरे लिए तुम्हारी हर जगह  सुंदर है।मुझे इजाजत दो।”

 काउल ने कहा,“मनीषा,जो घृण्य,अस्पृश्य है,वह सबके लिए समान है।”

गाड़ी से उतरकर काउल के सामने खड़ी हो गई मनीषा।देर तक सिर्फ उधर देखती रही।  उसने कहा, “रमेश!”

काउल यह सुनने के लिए तैयार नहीं थे।वह कहने लगे, “मनीषा,तुम्हारे मित्र प्रतीक्षा कर रहे हैं।जल्दी चली जाओ।”
नीषा ने कहा,मेरे मित्रों के कर्तव्य की तुम अवहेलना नहीं करते,मगर मेरे प्रति तुम्हारा क्या कर्तव्य नहीं है? क्या कोई दायित्व नहीं है? क्या कोई आशा भी नहीं है?”

काउल ने कहा,“मनीषा,जो देवता पर चढ़ने लायक है,उसका स्थान कूड़े का ढेर नहीं हो सकता है।फिर तुम और असहाय नहीं हो।”
मनीषा ने कहा,वह ख्याल मेरा होगा,वह फैसला मेरा होगा।उस बारे में मैं विचार कर चुकी हूँ, और फैसला भी।” कुछ समय रुककर कहा,“रमेश,एक बार अपना मुंह खोलो,अपना उत्तर दो।”

देसाई ने आवाज लगाई,“मनीषा,यहाँ गाड़ी और नहीं रुक सकती।यहाँ पार्किंग करना मना है।”
काउल  ने कहा, “मनीषा,जाओ।”
“आज जवाब लेकर जाऊँगी।आखिरी जवाब।”
“अस्वाभाविक परिस्थिति पैदा न करो।सड़क पर जिंदगी के फैसले नहीं हुआ करते हैं।”

“ इस सड़क से तो एक दिन उठाया था मुझे,काउल!”

 दूर से देसाई ने फिर आवाज लगाई।

 मनीषा ने कहा,रमेश,कल सुबह तक मुझे उत्तर चाहिए।” नमस्कार किया मनीषा ने। दोनों सुरम्य पंखुड़ियों के मिलन वाली नमस्कार-मुद्रा।वही निवेदन भरी दृष्टि।वे ही कांपते होंठ।  वही शांत मूर्ति,मनीषा।
 मनीषा गाड़ी के पास चली गई।लाइट जलाकर वह गाड़ी चल पड़ी।काउल कुछ समय के लिए खड़े रहे।आँखों से बहती आंसुओं की दो धाराओं से नमस्कार का उत्तर दिया काउल ने।
मनीषा को काउल की आखिरी अलविदा।
 आशा जहां असीम होती है,वहाँ जरा-सा व्यतिक्रम प्रलय पैदा कर देता है।मनीषा से काउल ने  जो आशा की थी,वह तो दुनिया का कोई मामूली-सा संबंध नहीं था,वह तो गंभीर आत्माओं का शाश्वत मिलन की आकांक्षा थी।काउल जहां रहना चाहते थे,वह पार्थिव जगत का कोई वास्तविक वक्ष-स्थल नहीं है,वह अतिभौतिक,अतींद्रिय मनीषा का अक्षय हृदय-स्थली हैं।
वर्तमान में काउल अपने अस्तित्व का मनीषा के पास में होने का संदेह कर रहे थे।अपनी स्थिति से संशय पैदा हो रहा था।अतीत और भी भयंकर,कुत्सित लग रहा था।

 ठेस पहुंची काउल को।प्रत्याख्यान का प्रतिक्षेधक है,मगर अपमान का कोई उपशम नहीं है। जो अग्नि भस्म नहीं कर पाती,जलन पैदा करती है;जो व्याधि मृत्यु नहीं दे पाती,वेदना देती रहती है,जो अपूर्ण प्रेम सृष्टि नहीं करता,प्रलय की भूमिका बनती है-  वही अग्नि,वह ही व्याधि और उसी तरह क्षत-विक्षत अधूरे प्रेम ने रमेश काउल को पराजित और असहाय बना दिया।

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