1.बैरिस्टर गोविंद दास और अमावस्या का चाँद:-


अभिमत

1.बैरिस्टर गोविंद दास और अमावस्या का चाँद:-
अंगूर खाओ,स्वास्थ्य के लिए अच्छे हैं;मगर इन अंगूरों के रस का क्वाथ गिलास में लेकर पियोगे तो तुम्हें मद्यपान करने वाला कहा जाएगा।एक नारी का उपभोग करोगे तो समाज तुम्हें उसका पति कहेगा,मगर ज्यादा नारियों का उपभोग करोगे तो समाज तुम्हें लंपट कहेगा।भविष्य में अपनी आर्थिक उन्नति के लिए जगन्नाथ जी के सामने धन बांटोगे तो समाज कहेगा धार्मिक,मगर रेस-कोर्स में पैसा कमाने के लिए लॉटरी खरीदोगे तो लोग कहेंगे जुआरी,गैंबलर। ये पंक्तियां याद आते ही मेरे स्मृति-पटल पर तरोताजा हो जाता है ड़िया साहित्य का एक बहुचर्चित उपन्यास- “अमावस्या का चाँद”।उस समय मन में प्रश्न उठता है कि ऐसा कालजयी उपन्यास बैरिस्टर गोविंद दास ने लिखा कैसे?अनगिनत पाठकों के मन में बहुत दिनों से उठ रहे इस प्रश्न का उत्तर खुद गोविंद दास देते हैं:-
वह ढलते शनिवार की आलस भरी दुपहरी थी।कटक विकास प्राधिकरण में स्थित दास भवन में उनसे मिलने के लिए हमारा समय अखबार की तरफ से मैं वहां गया था।उस दिन मेरा मन बहुत इच्छुक था,करोड़ों युवाओं के आदर्श प्रतीक चरित्र काउल को सशरीर देखने के लिए।
क्या यह संभव है! क्या भौतिक जगत में एक शरीरधारी मनुष्य आधुनिक युग में काउल बन सकता है?भौतिक विमुक्तता इतनी सहज बात नहीं है!फिर उम्र की ढलान में अगर वह काउल काउल जैसा लगता है- यह जानने की मन में अभिलाषा थी।मन में कामना थी, कामना रूपी घोड़े पर सवार होकर उसे अपनी इच्छा से दौड़ाने की, फिर उस दौड़ के दौरान उस रास्ते पर चुपचाप छोड़कर लौट आता एक दर्शक बनकर यह कहते हुए तू अपने रास्ते पर जा और वह फिर अपने रास्ते पर लौट आता था।कह सकते है नए रास्ते की खोज में रेस कोर्स,घोड़े,दर्शक,हार-जीत आदि को पीछे छोड़ कर चलता जा रहा था काउल!अरे,काउल का घर और कितनी दूर है!
 प्रिय पाठको!मैं आपको काउल को याद दिलाने की धृष्टता नहीं करूंगा।क्योंकि बैरिस्टर गोविंददास का काउल’,‘अमावस्या का चांद का काउल शायद ओड़िया साहित्य में पहला पात्र है जो जाति-वर्ग-वर्ण-देश की सीमाओं से ऊपर उठकर अंतर्राष्ट्रीय चरित्र का प्रतिनिधित्व करता है।  ओड़िया उपन्यासों में अमावस्या का चाँद के सर्वाधिक संस्करण (अभी तक 33 बार) प्रकाशित हो चुके है।काउल के चरित्र की सफलता इस बात से उजागर होती है कि 50 वर्षों से अधिक समय से पाठकों को काउल के डायलोग कविता की पंक्तियों की तरह याद हैं।काउल ने ओड़िया  पाठकों के हृदय में,सपनों में,आदर्श में,पत्र-भाषा में,सभा-समिति में, आलाप-आलोचना में,साहित्य में ऐसी जगह स्थापित की है,वैसी जगह किसी अन्य ओड़िया उपन्यास के पात्र के भाग्य में नहीं है।
इसलिए काउल  से मिलने के लिए हम पहुंच गए उपन्यासकार गोविंद दास के घर और अमावस्या का चाँद जैसे कालजयी उपन्यास-रचना की पृष्ठभूमि के गर्त में छिपे हुए कथानक की तलाश करने लगे।गोविंद दास अपनी स्वीकारोक्ति इस तरह करते हैं:-
 हरमन हेस के विख्यात उपन्यास सिद्धार्थ ने मेरे मन पर गंभीर प्रभाव डाला।जीवन की विभिन्नताओं के भीतर उस पात्र के मूल्यांकन करने का प्रयास मेरे लिए आकर्षण का अन्यतम कारण था।इसके अतिरिक्त,सिद्धार्थ जिस तरह अंत में गौतम बुद्ध के अष्टांग मार्ग की  सम्यक समाधि के निकट पहुंचकर जीवन को समझ पाता है,  वही कहानी मुझे उद्वेलित करती है।इसलिए मैंने सोचा कि मैं भी एक ऐसे चरित्र को तैयार करूंगा, जो जीवन की विभिन्न अवस्थाओं में मानवता के मापदंड की कसौटी पर खरा उतरेगा। इस प्रकार इस कहानी का स्केच मुझे मिला हरमन हेस के पास,जिसका ट्रीटमेंट मैंने अपनी रुचि और आवश्यकता के अनुसार किया।
बड़ेजे की बात है,काउल ओड़िया पात्र नहीं है।इसी तरह मुख्य घटनाएं भी ओड़िशा की नहीं है जैसेकि रेसकोर्स,बाईजी का कोठा-ये  सब ओड़िशा में नहीं है।फिर ड़िया पाठकों के प्रिय पात्र के अंदर जीवंतता है,जीवन खोजने का साहस है,इसलिए उन्हें यह पात्र पसंद आता है।विभिन्न मनस्थितियों वाला काउल उनकी इच्छा और अभिलाषा का प्रतीक बन गया है।इसलिए मैं ओड़िशा के वृहत्तर पाठक वर्ग के प्रति अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करता हूं।
आप जानना चाहते होंगे कि वह काउल मैं हूं या कोई और।नहीं तो और कौन है? कहानी इस प्रकार है-
कोई भी पात्र,कथावस्तु या विचार धारा अगर लेखक की अनुभूति  नहीं है, मेरा विश्वास है वह कृति पाठक जगत को आंदोलित नहीं कर पाएगी। इस पात्र में आप वह प्रेरणा खुद खोज सकते हैं।मैं जब विलायत से बार-एट-लॉं करके लौटा,उस समय मैंने नहीं सोचा था कि मैं क्या करूंगा।ओड़िशा में रहूंगा या सुप्रीम कोर्ट जाऊंगा या ये सब-कुछ छोडकर कोई और काम करुंगा-ये सारे मेरे सामने प्रश्नवाचक थे।एक समय ऐसा आया-मैंने निश्चय किया,जीवन जिस रास्ते पर जा रहा है  जाए,मेरा काम उसके साथ खेलना है,इस जीवन से खेलने की हिम्मत मुझे मेरे अतीत की पृष्ठभूमि ने प्रदान की।
 छात्र जीवन से ही दुस्साहसिक काम करने की मन में इच्छा थी।  हमारा एक मध्यमवर्गीय परिवार था।मेरे मित्रों ने,जो धनी परिवारों से संबंध रखते थे, कटक में पढ़ने का निर्णय लिया,उस समय मेरी   कोलकाता की प्रेसिडेंसी कॉलेज में पढ़ने की इच्छा हुई।उस समय कटक के लड़कों के लिए प्रेसिडेंसी कॉलेज में अध्ययन करना एवरेस्ट की चोटी पर चढ़ने के तुल्य था।प्रेसिडेंसी कॉलेज से बी॰ए॰करने के बाद मैंने ऑक्सफोर्ड में बार-एट-लॉं के लिए अप्लाई किया।ऑक्सफोर्ड में  पढ़ना भी कोई आसान बात नहीं थी।पहले तो वहाँ सीट पाना भी कोई साधारण बात नहीं थी,उसके बाद पढ़ाई का खर्च निकालना भी इतना सहज नहीं था।मगर मुझे सीट मिल गई और मैंने पिताजी से आगे पढ़ने की हठ करने लगा।पिताजी ने मना नहीं किया। ऋण लेकर मुझे ऑक्सफोर्ड भेजा गया।मुझे आज भी याद है- जब मैंने घर में बैरिस्टर बनने की इच्छा जाहिर की तो हमारे घर में मानो वज्रपात हो गया।क्योंकि बैरिस्टरी की पढ़ाई करने के लिए उस समय शायद कटक शहर में दस-बारह जनों को छोडकर किसी के पास इतना पैसा नहीं था।
मैं पढ़ाई में अच्छा था।उसके अलावा,उस समय मेरा समाजवादी आंदोलन से घनिष्ठ संबंध था।सन 1951 में छात्र-आंदोलन के समय  जेल भी गया था।बीच में समाजवादी अखबार कृषक का संपादन कर रहा था।मैं अपने पिता की इकलौती संतान था।वे चाहते थे कि मैं डॉक्टर बनूँ।अगर मैं चाहता तो उस समय आई॰ए॰एस॰ बन सकता था।परंतु ये सब छोड़कर मैं वकील बना।ओड़िशा में पहले वकालत शुरु की।यहां खूब प्रतिष्ठित होने के बाद अचानक मेरी इच्छा हुई दिल्ली जाकर सुप्रीम कोर्ट में प्रैक्टिस करने की।उस समय ओड़िशा में जो मुझे प्रतिष्ठा मिली थी,उससे आराम से धनोपार्जन किया जा सकता था।मगर मैंने दिल्ली में नए सिरे से अपने आप को स्थापित करने के लिए संघर्ष करना ज्यादा पसंद किया।शायद मेरे मन में भविष्य के प्रति एक पुंजीभूत आग्रह था,जो मुझे आगे-से-आगे खेल खेलने के लिए प्रेरित कर रहा था।
 उस समय और एक ऐसी घटना घटी,जो इस उपन्यास की मुख्य कहानी है।उस समय हस्तशिल्प पर सरकार ने टैक्स लगाया।  सरकारी संस्थाओं छोड़कर प्राइवेट संस्थाओं को इस टैक्स के घेरे में ले लिया गया।प्राइवेट संस्थाओं ने इसका विरोध किया।मैंने इस केस को लिया।इस संबंध में निर्णय लेने के लिए अशोक मेहता कमेटी का गठन किया गया।वह कमेटी कोलकाता से आई थी।कमेटी के आगे  कानूनन दावा करने के लिए उद्योगों की तरफ से मुझे दायित्व दिया गया।इस काम के लिए मुझे कोलकाता में लगभग तीन महीने रहना पड़ा था।मैं ग्रेट ईस्टर्न होटल में ठहरा हुआ था।वहां के वातावरण ने  मुझे जिंदगी को चारों दिशाओं में फेंककर एक भिन्न-शैली का जीवन-यापन कर रहे मानव को बचाने प्रेरणा दी।वहीं पर मैंने उस समय अमावस्या का चाँद उपन्यास लिखा।वहीं पर काउल का जन्म हुआ।  सच कहूँ तो फाइव स्टार होटल के उस परिवेश से माटी का मनुष्य का बरजू जैसा पात्र कभी नहीं आ सकता था।  
काउल नाम की एक संभावना है।मैंने जानबूझकर यह नाम दिया, जो किसी जाति और भौगोलिक सीमा से परे होगा।लोग अपनी निगाहों से उस काल्पनिक पात्र को देखें।इसलिए काउल केवल एकमात्र चरित्र नहीं है।वह एक इच्छा है।वह एक प्रेरित अभिलाषा है।(तथ्य सौजन्य: द टाइम्स ऑफ इंडिया/हमारा समय)

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