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8. इस विराट प्रा साद के प्रांगण में सुबह-सुबह आकाश की लालिमा की ओर देख रही थी म नीषा। आकाश की यह निर्विच्छिन्न कोमलता।सिंफोनी की तरह आकाश। उ सी मधुर संगीत से झंकृत यह प्रकृति। क्यों ? कल शाम को काउल की आँखें इसी तरह रंगीन होती जा रही थी आंसुओं के पहले स्पर्श की तरह। काउल , तुमने त्याग , उपभोग करना सीखा है , मगर अधिकार जताना नहीं ।हरपल मैं प्रतीक्षा करती रही कि तुम कहोगे , “ मनीषा , मेरे पास आओ।” केवल इन तीन शब्दों के लिए कितनी रातें मैंने जागते हुए काटी।कितने विनीत निवेदन किए। एक दिन भी मेरा स्पर्श नहीं किया। कभी हल्का-सा इशारा नहीं किया।तुम्हारा जरा-सा इशारा पाकर मैं अपना सारा विश्व तुम्हारी चरणों में लुटा देती।तुम्हा रे हृदय में खो जाती। कितने प्रसंग गढ़े। कितने छ लावे दिखाएं।कभी जाहिर नहीं होने दिया तुमने अपना अधिकार। न शरीर की चाह रही , न मन की।केवल दूर ही रहे किसी मधुर सपने की तरह।मगर क्यों ? क्या बाधा थी ? शायद बीमारी।मगर तुम तो एकमात्र ऐसे व्यक्ति हो , जिसने अपनी सारी संपदा लूटा दी। अपनी एकाग्रता , निष्ठा , जी-जान से मेहनत करके। इस व्याधि के लि